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देवता: इन्द्र: ऋषि: वसिष्ठः छन्द: त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

प्र व॑र्तय दि॒वो अश्मा॑नमिन्द्र॒ सोम॑शितं मघव॒न्त्सं शि॑शाधि । प्राक्ता॒दपा॑क्तादध॒रादुद॑क्ताद॒भि ज॑हि र॒क्षस॒: पर्व॑तेन ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra vartaya divo aśmānam indra somaśitam maghavan saṁ śiśādhi | prāktād apāktād adharād udaktād abhi jahi rakṣasaḥ parvatena ||

पद पाठ

प्र । व॒र्त॒य॒ । दि॒वः । अश्मा॑नम् । इ॒न्द्र॒ । सोम॑ऽशितम् । म॒घ॒ऽव॒न् । सम् । सि॒शा॒धि॒ । प्राक्ता॑त् । अपा॑क्तात् । अ॒ध॒रात् । उद॑क्तात् । अ॒भि । ज॒हि॒ । र॒क्षसः॑ । पर्व॑तेन ॥ ७.१०४.१९

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:104» मन्त्र:19 | अष्टक:5» अध्याय:7» वर्ग:8» मन्त्र:4 | मण्डल:7» अनुवाक:6» मन्त्र:19


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आर्यमुनि

अब प्रजा को परमात्मा यह आदेश करता है कि तुम ऐसी प्रार्थना करो।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे परमात्मन् ! द्युलोक के राक्षसों के मारने के लिए (अश्मानम्) वज्र को (प्रवर्तय) फैकें, जो (सोमशितम्) विज्ञानी विद्वानों से बनाया गया हो। (मघवन्) हे ऐश्वर्य्यसम्पन्न परमात्मन् ! न्यायशील साधु पुरुषों की (सं शिशाधि) भलीभाँति रक्षा करें और (प्राक्तात्) पूर्व दिशा से (अपाक्तात्) पश्चिम से (अधरात्) दक्षिण से (उदक्तात्) उत्तर से (रक्षसः) अन्यायकारी राक्षसों को (पर्वतेन) वज्र से (जहि) मारें ॥१९॥
भावार्थभाषाः - पर्वत के अर्थ यहाँ उस शस्त्र के हैं, जिसमें पोरी के समान बहुत से पर्व पड़ते हों। निघण्टु में पर्वत मेघप्रकरण में भी पढ़ा गया है। जो लोग पर्वत के अर्थ पहाड़ के समझ लेते हैं वह अत्यन्त भूल करते हैं। हाँ वैदिक समय के बहुत पीछे पर्वत के अर्थ लौकिक भाषा में पहाड़ के भी बन गए। अस्तु−यहाँ प्रकरण शस्त्र का है, इसलिए इसके अर्थ शस्त्र के होने चाहिये, अन्य नहीं ॥१९॥
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आर्यमुनि

अथ परमात्मा प्रार्थनां कर्तुमुपदिशति।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे परमात्मन् ! (सोमशितम्) विद्वद्भिर्निर्मितं (अश्मानम्) वज्रं (दिवः) द्युलोकात् (प्र, वर्तय) क्षिप रक्षो नाशयितुं (मघवन्) हे ऐश्वर्यशालिपरमात्मन् ! (सम्, शिशाधि) स्वस्तोतॄन् सम्यग्रक्ष (प्राक्तात्) पूर्वस्याः (अपाक्तात्) पश्चिमतः (अधरात्) दक्षिणतः (उदक्तात्) उत्तरतः (अभि) सर्वतोऽपि (रक्षसः) राक्षसान् (पर्वतेन) वज्रेण (जहि) नाशय ॥१९॥