पदार्थान्वयभाषाः - (सोमः) परमात्मा (वृजिनम्) पापी को (न, वा, उ) उतना नहीं (हिनोति) दण्ड देता है तथा (मिथुया, धारयन्तम्, क्षत्रियम्) व्यर्थ साहस रखनेवाले क्षत्रिय को भी उतना दण्ड नहीं देता, जितना कि (रक्षः, हन्ति) राक्षसों को (तथा असत्, वदन्तम् हन्ति) झूठ बोलनेवाले को नष्ट करता है। (उभौ) ये दोनों (इन्द्रस्य, प्रसितौ) इन्द्र उस ऐश्वर्यसम्पन्न परमात्मा के बन्धन में (शयाते) बँधकर दुःख पाते हैं ॥१३॥
भावार्थभाषाः - पापी पुरुष पाप से पश्चात्ताप करने पर अथवा ईश्वर के सम्बन्ध में सन्ध्या-वन्दनादि कर्मों के समय पर न करने से प्रत्यवायरूपी दोषों से मुक्त भी हो सकता है, एवं साहसी क्षत्रिय प्रजारक्षा के भाव से छोड़ा जा सकता है, पर राक्षस=अन्यायकारी, असत्यवादी=मिथ्याभाव प्रचार करनेवाला और मिथ्या आचार करनेवाला पाप से कदापि निर्मुक्त नहीं हो सकता। तात्पर्य यह है कि परमात्मा में दया और न्याय दोनों हैं। दया केवल उन्हीं पर करता है, जो दया के पात्र हैं वा यों कहो कि जिनके पाप आत्मा वा परमात्मा सम्बन्धी हैं और जो लोग दूसरों की वञ्चना करते हैं, वे अन्याय करते हैं, उनको परमात्मा कदापि क्षमा नहीं करता अर्थात् यथायोग्य दण्ड देता है, इस प्रकार परमात्मा न्यायशील है ॥१३॥