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सु॒वि॒ज्ञा॒नं चि॑कि॒तुषे॒ जना॑य॒ सच्चास॑च्च॒ वच॑सी पस्पृधाते । तयो॒र्यत्स॒त्यं य॑त॒रदृजी॑य॒स्तदित्सोमो॑ऽवति॒ हन्त्यास॑त् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

suvijñānaṁ cikituṣe janāya sac cāsac ca vacasī paspṛdhāte | tayor yat satyaṁ yatarad ṛjīyas tad it somo vati hanty āsat ||

पद पाठ

सु॒ऽवि॒ज्ञा॒नम् । चि॒कि॒तुषे॑ । जना॑य । सत् । च॒ । अस॑त् । च॒ । वच॑सी॒ इति॑ । प॒स्पृ॒धा॒ते॒ इति॑ । तयोः॑ । यत् । स॒त्यम् । य॒त॒रत् । ऋजी॑यः । तत् । इत् । सोमः॑ । अ॒व॒ति॒ । हन्ति॑ । अस॑त् ॥ ७.१०४.१२

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:104» मन्त्र:12 | अष्टक:5» अध्याय:7» वर्ग:7» मन्त्र:2 | मण्डल:7» अनुवाक:6» मन्त्र:12


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आर्यमुनि

वास्तव में कौन सत्यवादी और असत्यवादी हैं, अब इसका निर्णय करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (सत्, च) जो सच्चे तथा (असत् च) जो झूठे (वचसी) वचन (पस्पृधाते) परस्पर विरुद्ध कहे जाते हैं, उनको (चिकितुषे, जनाय) विद्वान् लोग (सुविज्ञानम्) सहज ही में समझ सकते हैं, (तयोः, यत् सत्यम्) उन दोनों में जो सत्य है तथा (यतरत्) जो (ऋजीयः) सरल अर्थात् सीधे स्वभाव से कहा गया है। (तत् इत्) उसी की (सोमः) परमात्मा (अवति) रक्षा करता है और (असत्, हन्ति) जो कपट भाव से कहा गया झूठा वचन है, उसको त्याग करता है ॥१२॥
भावार्थभाषाः - तात्पर्य यह है कि अपनी ओर से वे देव और असुर दोनों ही सत्यवादी बन सकते हैं अर्थात् देवता कहेगा कि मैं सत्यवादी हूँ और असुर कहेगा कि मैं सत्यवादी हूँ, परन्तु ये बात वास्तव में ठीक नहीं, क्योंकि विद्वान् इसका निर्णय कर सकता है कि अमुक सत्यवादी और अमुक असत्यवादी है। सत्य भी दो प्रकार का होता है, जैसा कि “ऋतञ्च सत्यञ्चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत” ॥ ऋग् १०।१९०।१॥ इस मन्त्र में वर्णन किया है अर्थात् वाणी के सत्य को ऋत कहते हैं और भाविक सत्य को अर्थात् वस्तुगत सत्य को सत्य कहते हैं। देवता वे लोग कहलाते हैं, जो वाणीगत सत्य तथा वस्तुगत सत्य के बोलने और माननेवाले होते हैं अर्थात् सत्यवादी और सत्यमानी लोगों का नाम वैदिक परिभाषा में देव और सदाचारी है, इनसे विपरीत असत्यवादी और असत्यमानी लोगों का नाम असुर और राक्षस है। और यह बात असुर इस नाम से भी स्वयं प्रकट होती है, क्योंकि ‘असुषु रमन्त इत्यसुरः’ जो प्राणमयकोश वा अन्नमयकोशात्मक शरीर को ही आत्मा मानते हैं, वे असुर हैं। इसी अभिप्राय से ‘असुर्या नाम ते लोकाः’। यजुः ४०।३। इस मन्त्र में असुरों के आत्मीय लोगों को ‘असुर्याः’ कहा। इस परिभाषा के अनुसार प्रकृति, पुरुष और परमात्मा की जो भिन्न-भिन्न सत्ता नहीं मानते, वे भी एक प्रकार के असुर ही हैं। भाव यह है कि इस मन्त्र में देव और राक्षस का निर्णय स्वयं परमात्मा ने किया है ॥१२॥
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आर्यमुनि

वस्तुतोऽत्र कः सत्यवादी कश्चासत्यवादीति निर्णीयते।

पदार्थान्वयभाषाः - (सत्, च) यत्सत्यं (असत्, च) यच्चासत्यम् (वचसी) उभे अपि वचसी (पस्पृधाते) मिथो विरुद्धे उच्येते ते वचसी (चिकितुषे, जनाय) विद्वान्नरः (सुविज्ञानम्) सुखेन विजानीते (तयोः, यत्, सत्यम्) तयोर्मध्ये यद्यथार्थमस्ति, तथा (यतरत्) यच्च (ऋजीयः) सरलतया ज्ञायते (तत्, इत्) तदेव (सोमः) परमात्मा (अवति) रक्षति (असत् हन्ति) कपटगदितं च निर्मुञ्चति ॥१२॥