पदार्थान्वयभाषाः - (एते, नरः) ये पूर्वोक्त ब्राह्मण (देवहितिम्, द्वादशस्य, ऋतुम्) परमेश्वर से विधान की गयी द्वादश मास में होनेवाली ऋतु की (जुगुपुः) रक्षा करें, (न, प्रमिनन्ति) व्यर्थ न जाने देवें, (संवत्सरे) वर्ष के उपरान्त (प्रावृषि, आगतायाम्) वर्षाकाल आने पर (तप्ताः, घर्माः) तपस्वी और तितिक्षु ब्राह्मण (विसर्गम्, अश्नुवते) व्रतधारण करते हैं ॥
भावार्थभाषाः - वर्षाकाल में ब्राह्मण लोग तप करें अर्थात् संयमी बनकर वेदपाठ करें। यहाँ व्रत से उसी व्रत का विधान है, जिसका “अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि” ॥ यजु. १।५ ॥ इत्यादि मन्त्रों से वर्णन किया गया है। इससे यह बात भी सिद्ध होती है कि वैदिक समय में ईश्वरार्चन केवल वैदिक सूक्तों के द्वारा ही क्रिया जाता था अर्थात् जो सूक्त ईश्वर के यश को वर्णन करते हैं, उनके पढ़ने का नाम ही उस समय ईश्वरार्चन था। जो ईश्वर के प्रतिनिधि बनाकर इस समय में मृण्मय देव पूजे जाते हैं, मालूम होता है उस समय भारतवर्ष में यह प्रथा न थी, हाँ इतना अवश्य हुआ कि जिन-जिन ऋतुओं में वैदिक यज्ञ होते थे वा प्रकृति के सौन्दर्य को देखकर वर्षादि ऋतुओं में वैदिक उत्सव किये जाते थे, उनके स्थान में अब अन्य प्रकार के उत्सव और पूजन होने लग पड़े, इस बात का प्रमाण निम्नलिखित मन्त्र में दिया जाता है ॥९॥