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सं॒व॒त्स॒रं श॑शया॒ना ब्रा॑ह्म॒णा व्र॑तचा॒रिण॑: । वाचं॑ प॒र्जन्य॑जिन्वितां॒ प्र म॒ण्डूका॑ अवादिषुः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

saṁvatsaraṁ śaśayānā brāhmaṇā vratacāriṇaḥ | vācam parjanyajinvitām pra maṇḍūkā avādiṣuḥ ||

पद पाठ

स॒व्ँम्व॒त्स॒रम् । श॒श॒या॒नाः । ब्रा॒ह्म॒णाः । व्र॒त॒ऽचा॒रिणः॑ । वाच॑म् । प॒र्जन्य॑ऽजिन्विताम् । प्र । म॒ण्डूकाः॑ । अ॒वा॒दि॒षुः ॥ ७.१०३.१

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:103» मन्त्र:1 | अष्टक:5» अध्याय:7» वर्ग:3» मन्त्र:1 | मण्डल:7» अनुवाक:6» मन्त्र:1


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आर्यमुनि

अब श्लेषालङ्कार से ब्राह्मणों का वेदव्रत और प्रावृषेण्यों का प्रावृट् को विभूषित करना कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (ब्राह्मणाः) “ब्रह्मण इमे ब्राह्मणाः” ब्रह्म वेद के साथ सम्बन्ध रखनेवाले (व्रतचारिणः) व्रती (संवत्सरं, शशयानाः) एक वर्ष के अनन्तर (पर्जन्यजिन्विताम्) तृप्तिकारक परमात्मा के साथ सम्बन्ध रखनेवाली (वाचम्) वाणी को (प्रावादिषुः) बोलने लगे (मण्डूकाः) ‘वेदानां मण्डयितारः’ वेदों को मण्डन करनेवाले “मण्डयन्तीति मण्डूकाः” ॥१॥
भावार्थभाषाः - वृष्टिकाल में वेदपाठ का व्रत करनेवाले ब्राह्मण वेदपाठ का व्रत करते हैं और उस समय में प्रायः उन सूक्तों को पढ़ते हैं, जो तृप्तिजनक हैं। दूसरे पक्ष में इस मन्त्र का यह भी अर्थ है कि वर्षाऋतु में मण्डन करनेवाले जीव वर्षाऋतु में ऐसी ध्वनि करते हैं, मानों एक वर्ष के अनन्तर उन्होंने अपने मौनव्रत को उपार्जन करके इसी ऋतु में बोलना प्रारम्भ किया है। तात्पर्य यह है कि इस मन्त्र में परमात्मा ने यह उपदेश किया है कि जिस प्रकार क्षुद्र जन्तु भी वर्षाकाल में आह्लादजनक ध्वनि करते हैं अथवा यों कहो कि परमात्मा के यश को गायन करते हैं, एवं हे वेदज्ञ लोगों ! तुम भी वेद का गायन करो। मालूम होता है कि श्रावणी का उत्सव, जो भारतवर्ष में प्रायः वैदिक सर्वत्र मनाते हैं, यह वेदपाठ से ईश्वर के महत्त्वगायन का उत्सव था ॥१॥
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आर्यमुनि

सम्प्रति श्लेषालङ्कारेण ब्राह्मणानां वेदव्रतं प्रावृषिजैः प्रावृण्मण्डनं च वर्ण्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (ब्राह्मणः) ब्रह्म वेदस्तत्सम्बन्धिनः (व्रतचारिणः) व्रतशीलाः (संवत्सरं शशयानाः) संवत्सरं यावत् सुस्थिता भवन्तः (पर्जन्यजिन्विताम्) तर्पकेण परमात्मना सम्बद्धां (वाचम्) वाणीं (प्रावादिषुः) वदितुं प्राक्रमिषत (मण्डूकाः) कथम्भूतास्ते मण्डयन्तीति मण्डूका वेदानां मण्डयितारः ॥१॥