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स्व१॒॑र्ण वस्तो॑रु॒षसा॑मरोचि य॒ज्ञं त॑न्वा॒ना उ॒शिजो॒ न मन्म॑। अ॒ग्निर्जन्मा॑नि दे॒व आ वि वि॒द्वान्द्र॒वद्दू॒तो दे॑व॒यावा॒ वनि॑ष्ठः ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

svar ṇa vastor uṣasām aroci yajñaṁ tanvānā uśijo na manma | agnir janmāni deva ā vi vidvān dravad dūto devayāvā vaniṣṭhaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स्वः॑। न। वस्तोः॑। उ॒षसा॑म्। अ॒रो॒चि॒। य॒ज्ञम्। त॒न्वा॒नाः। उ॒शिजः॑। न। मन्म॑। अ॒ग्निः। जन्मा॑नि। दे॒वः। आ। वि। वि॒द्वान्। द्र॒वत्। दू॒तः। दे॒व॒ऽयावा॑। वनि॑ष्ठः ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:10» मन्त्र:2 | अष्टक:5» अध्याय:2» वर्ग:13» मन्त्र:2 | मण्डल:7» अनुवाक:1» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह विद्वान् कैसा हो क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (अग्निः) विद्युत् अग्नि (स्वः, न) आदित्य के समान (वस्तोः) दिवस और (उषसाम्) प्रभातवेलाओं के सम्बन्ध में (अरोचि) रुचि करता है वा प्रकाशित होता (यज्ञम्) संगति योग्य व्यवहार को (तन्वानाः) विस्तृत करते और (उशिजः) कामना करते हुए के (नः) तुल्य (देवः) प्रकाशयुक्त कामना करता हुआ (विद्वान्) विद्वान्(मन्म) मानने योग्य विज्ञान और (जन्मानि) जन्मों को (वि, आ, द्रवत्) विशेष कर अच्छा शुद्ध करता हुआ (दूतः) समाचार पहुँचानेवाला (वनिष्ठः) अत्यन्त विभागकर्ता (देवयावा) दिव्य उत्तम गुणों को प्राप्त होनेवाला अग्नि के तुल्य श्रेष्ठ व्यवहारों को प्रकाशित करता, उस विद्वान् पुरुष की निरन्तर सेवा करो ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो जिज्ञासु विद्वानों से शिक्षा को प्राप्त होके विधि और क्रिया से अग्नि आदि पदार्थों से समस्त व्यवहारों को सिद्ध करते हैं, वे प्रसिद्ध धनवान् होते हैं ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स विद्वान् कीदृशः किं कुर्यादित्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यो विद्युदग्निः स्वर्णवस्तोरुषसां सम्बन्धेऽरोचि यज्ञं तन्वाना उशिजो न देवो विद्वान्मन्म जन्मानि व्याद्रवद्दूतो वनिष्ठो देवयावाग्निरिव सद्व्यवहारानरोचि तं विपश्चितं सततं सेवध्वम् ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (स्वः) आदित्यः (न) इव (वस्तोः) दिनस्य (उषसाम्) प्रभातवेलानाम् (अरोचि) प्रकाशते (यज्ञम्) सङ्गन्तव्यं व्यवहारम् (तन्वानाः) विस्तृणन्तः (उशिजः) कामयमाना ऋत्विजः (न) इव (मन्म) मन्तव्यं विज्ञानम् (अग्निः) पावक इव (जन्मानि) (देवः) देदीप्यमानः कामयमानो वा (आ) (वि) (विद्वान्) (द्रवत्) धावन् (दूतः) समाचारदाता (देवयावा) यो देवान् दिव्यगुणान् याति प्राप्नोति (वनिष्ठः) अतिशयेन संविभाजकः ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। ये जिज्ञासवो विद्वद्भ्यः शिक्षां प्राप्य विधिक्रियाभ्यां वह्न्यादिभ्यः पदार्थेभ्योऽविशिष्टान् व्यवहारान् साध्नुवन्ति ते सिद्धश्रियो जायन्ते ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जे जिज्ञासू विद्वानांकडून शिक्षण प्राप्त करून विधी व क्रिया याद्वारे अग्नी इत्यादी पदार्थांनी संपूर्ण व्यवहार सिद्ध करतात ते प्रसिद्ध व धनवान होतात. ॥ २ ॥