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देवता: अग्निः ऋषि: वसिष्ठः छन्द: त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

उप॒ यमेति॑ युव॒तिः सु॒दक्षं॑ दो॒षा वस्तो॑र्ह॒विष्म॑ती घृ॒ताची॑। उप॒ स्वैन॑म॒रम॑तिर्वसू॒युः ॥६॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

upa yam eti yuvatiḥ sudakṣaṁ doṣā vastor haviṣmatī ghṛtācī | upa svainam aramatir vasūyuḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उप॑। यम्। एति॑। यु॒व॒तिः। सु॒ऽदक्ष॑म्। दो॒षा। वस्तोः॑। ह॒विष्म॑ती। घृ॒ताची॑। उप॑। स्वा। ए॒न॒म्। अ॒रम॑तिः। व॒सु॒ऽयुः ॥६॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:1» मन्त्र:6 | अष्टक:5» अध्याय:1» वर्ग:24» मन्त्र:1 | मण्डल:7» अनुवाक:1» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर अग्नि-विद्या किसके तुल्य क्या उत्पन्न करती है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वानो ! जैसे (युवतिः) युवावस्था को प्राप्त कन्या (दोषा, वस्तोः) रात्रि दिन (सुदक्षम्) अच्छे बलयुक्त (यम्) जिस पति को (उप, एति) समीप से प्राप्त होती है जैसे (हविष्मती) ग्रहण करने योग्य बहुत वस्तुओंवाली (घृताची) रात्री चन्द्रमा को (उप) प्राप्त होती है तथा जैसे (अरमतिः) जिस के गृहस्थ के तुल्य रमण किया नहीं वह (वसूयुः) द्रव्यों की कामना करनेवाली (स्वा) अपनी स्त्री (एनम्) इस विवाहित प्रियपति को प्राप्त होके सुख पाती है, वैसे अग्निविद्या को प्राप्त होके तुम लोग निरन्तर आनन्दित होओ ॥६॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो दिन रात उद्यम और विद्या के द्वारा अग्निविद्या को प्रकट करते हैं, वे परस्पर प्रीति रखनेवाले की पुरुषों के तुल्य बड़े आनन्द को प्राप्त होते हैं ॥६॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरग्निविद्या किंवत्किं जनयतीत्याह ॥

अन्वय:

हे विद्वांसो ! यथा युवतिर्दोषावस्तोः सुदक्षं यं पतिमुपैति यथा हविष्मती घृताची चन्द्रमुपैति यथाऽरमतिर्वसूयुः [स्वा]स्वभार्य्यैनं युवानं प्रियं पतिं प्राप्य सुखमुपैति तथाऽग्निविद्यां प्राप्य यूयं सततं मोदध्वम् ॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (उप) (यम्) हृद्यं पतिम् (एति) प्राप्नोति (युवतिः) प्राप्तयौवना कन्या (सुदक्षम्) सुष्ठुबलयुक्तम् (दोषा) रात्रिः (वस्तोः) दिनम् (हविष्मती) बहूनि हवींषि ग्राह्यवस्तूनि विद्यन्ते यस्यां सा (घृताची) रात्रिः। घृताचीति रात्रिनाम। (निघं०१.७) (उप) (स्वा) स्वकीया (एनम्) विवाहितम् (अरमतिः) न विद्यते पूर्वा रमती रमणे गृहस्थक्रिया यस्याः सा (वसूयुः) या वसूनि द्रव्याणि कामयति सा ॥६॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। येऽहर्निशमुद्यमेन विद्यया वह्निविद्यां जनयन्ति ते प्रियस्त्रीपुरुषवन्महान्तमानन्दं प्राप्नुवन्ति ॥६॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे रात्रंदिवस उद्योग करून विद्येद्वारे अग्निविद्या प्रकट करतात ते परस्पर प्रेम करणाऱ्या स्त्री-पुरुषांप्रमाणे अत्यंत आनंद प्राप्त करतात. ॥ ६ ॥