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देवता: अग्निः ऋषि: वसिष्ठः छन्द: त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

दा नो॑ अग्ने धि॒या र॒यिं सु॒वीरं॑ स्वप॒त्यं स॑हस्य प्रश॒स्तम्। न यं यावा॒ तर॑ति यातु॒मावा॑न् ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

dā no agne dhiyā rayiṁ suvīraṁ svapatyaṁ sahasya praśastam | na yaṁ yāvā tarati yātumāvān ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

दाः। नः॒। अ॒ग्ने॒। धि॒या। र॒यिम्। सु॒ऽवीर॑म्। सु॒ऽअ॒प॒त्यम्। स॒ह॒स्य॒। प्र॒ऽश॒स्तम्। न। यम्। यावा॑। तर॑ति। या॒तु॒ऽमावा॑न् ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:1» मन्त्र:5 | अष्टक:5» अध्याय:1» वर्ग:23» मन्त्र:5 | मण्डल:7» अनुवाक:1» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह अग्नि कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सहस्य) बल में श्रेष्ठ (अग्नि) अग्नि के तुल्य तेजस्वी विद्वन् ! (धिया) बुद्धि वा कर्म से जैसे अग्नि क्रिया से (सुवीरम्) सुन्दर वीर जन (स्वपत्यम्) सुन्दर सन्तान जिससे हों उस (प्रशस्तम्) उत्तम (रयिम्) धन को (नः) हमारे लिये देता है (यम्) जिसकी (यातुमावान्) मेरे तुल्य चलता हुआ (यावा) गमनशील (न) नहीं (तरति) उल्लङ्घन करता, उस प्रकार की विद्या हमारे लिये बुद्धि से आप (दाः) दीजिये ॥५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे विद्वानो ! जिसे अग्नि-विद्या से सुन्दर सन्तान, उत्तम शूरवीर जन श्रेष्ठ धन और यानों का बड़ा वेग उत्पन्न हो, उस विद्या को उत्तम विचार और अनेक प्रकार की क्रियाओं से प्रकट करो ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः सोऽग्निः कीदृशोऽस्तीत्याह ॥

अन्वय:

हे सहस्याग्ने ! धिया यथाऽग्निर्धिया क्रियया सुवीरं स्वपत्यं प्रशस्तं रयिं नोऽस्मभ्यं ददाति। यं यातुमावान् यावा न तरति तद्विद्याधियाऽस्मभ्यं त्वं दाः ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (दाः) देहि (नः) अस्मभ्यम् (अग्ने) अग्निरिव विद्वन् (धिया) प्रज्ञया कर्मणा वा (रयिम्) धनम् (सुवीरम्) शोभना वीरा यस्मात्तम् (स्वपत्यम्) शोभनान्यपत्यानि सन्ताना यस्मात्तम् (सहस्य) सहसि बले साधो (प्रशस्तम्) उत्तमम् (न) निषेधे (यम्) (यावा) यो याति (तरति) उल्लङ्घयति (यातुमावान्) गच्छन्मत्सदृशः ॥५॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे विद्वांसो ! यथाग्निविद्यया सुसन्ताना उत्तमशूरवीराः श्रेष्ठं धनं महान् यानवेगश्च प्रजायते तां सुविचारेण विविधक्रियया जनयत ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे विद्वानांनो ! ज्या अग्निविद्येने सुंदर सन्तान, उत्तम शूर वीर, श्रेष्ठ लोक व वेगवान याने उत्पन्न होतात त्या विद्येला उत्तम विचार व विविध क्रियांद्वारे प्रकट करा. ॥ ५ ॥