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व॒क्ष्यन्ती॒वेदा ग॑नीगन्ति॒ कर्णं॑ प्रि॒यं सखा॑यं परिषस्वजा॒ना। योषे॑व शिङ्क्ते॒ वित॒ताधि॒ धन्व॒ञ्ज्या इ॒यं सम॑ने पा॒रय॑न्ती ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vakṣyantīved ā ganīganti karṇam priyaṁ sakhāyam pariṣasvajānā | yoṣeva śiṅkte vitatādhi dhanvañ jyā iyaṁ samane pārayantī ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

व॒क्ष्यन्ती॑ऽइव। इत्। आ। ग॒नी॒ग॒न्ति॒। कर्ण॑म्। प्रि॒यम्। सखा॑यम्। प॒रि॒ऽस॒स्व॒जा॒ना। योषा॑ऽइव। शि॒ङ्क्ते॒। विऽत॑ता। अधि॑। धन्व॑न्। ज्या। इ॒यम्। सम॑ने। पा॒रय॑न्ती ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:75» मन्त्र:3 | अष्टक:5» अध्याय:1» वर्ग:19» मन्त्र:3 | मण्डल:6» अनुवाक:6» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर ये किससे कौन क्रिया को करते हैं, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे शूरवीर ! जो (इयम्) यह (ज्या) प्रत्यञ्चा अर्थात् धनुष् की तांति (वक्ष्यन्तीव) जैसे विदुषी कहनेवाली होती, वैसे (प्रियम्) अपने प्यारे (सखायम्) मित्र के समान वर्त्तमान पति को (परिषस्वजाना) सब ओर से संग किये हुए (योषेव) पत्नी स्त्री (कर्णम्) कान को (आ, गनीगन्ति) निरन्तर प्राप्त होती है, वैसे (अधि) (धन्वन्) धनुष् के ऊपर (वितता) विस्तारी हुई तांति (समने) सङ्ग्राम में (पारयन्ती) पार को पहुँचाती हुई (शिङ्क्ते) गूँजती है उस (इत्) ही को तुम यथावत् जानकर उसका प्रयोग करो ॥३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे वीरपुरुषो ! जैसे प्रिय मित्र पति के साथ स्त्री प्यारी सम्बद्ध अर्थात् प्रेम की डोरी से बंधी हुई है और जैसे विद्यार्थिनों कन्याओं के साथ पढ़ानेवाली विदुषी स्त्री बंधी हुई दुःख से और अविद्या से पार पहुँचती है, वैसे ही यह धनुष् की प्रत्यञ्चा युद्ध से पार पहुँचा कर सदैव सुखी करती है ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरेते कया कां क्रियां कुर्वन्तीत्याह ॥

अन्वय:

हे शूरवीर ! येयं ज्या वक्ष्यन्तीव प्रियं सखायं परिषस्वजाना योषेव कर्णमागनीगन्ति, अधि धन्वन् वितता समने पारयन्ती सती शिङ्क्ते तामिद् यूयं यथावद्विज्ञाय सम्प्रयुङ्ध्वम् ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (वक्ष्यन्तीव) यथा कथयिष्यन्ती विदुषी स्त्री (इत्) एव (आ) समन्तात् (गनीगन्ति) भृशं गच्छति (कर्णम्) श्रोत्रम् (प्रियम्) (सखायम्) मित्रमिव वर्त्तमानं पतिम् (परिषस्वजाना) परितः कृतसङ्गा (योषेव) पत्नीव (शिङ्क्ते) अव्यक्तं शब्दं करोति (वितता) विस्तृता (अधि) उपरि (धन्वन्) धनुषि (ज्या) प्रत्यञ्चा (इयम्) (समने) सङ्ग्रामे (पारयन्ती) पारं प्रापयन्ती ॥३॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। हे वीरमनुष्या ! यथा प्रियेण मित्रेण पत्या सह स्त्री प्रिया सम्बद्धा यथा च विद्यार्थिनीभिः सहाऽध्यापिका विदुषी स्त्री सम्बद्धा वर्त्तते दुःखादविद्यायाश्च पारं गमयति तथैवेयं धनुर्ज्या युद्धात् पारं गमयित्वा सदैव सुखयति ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे वीर पुरुषांनो ! जसे प्रिय सखा असणाऱ्या पतीबरोबर प्रिय स्त्री प्रेमरज्जूंनी बांधलेली असून सर्वांना दुःखातून व अविद्येतून दूर करते तशीच ही धनुष्याची प्रत्यञ्चा युद्धातून पार पाडते व सदैव सुखी करते. ॥ ३ ॥