सोमा॑रुद्रा धा॒रये॑थामसु॒र्यं१॒॑ प्र वा॑मि॒ष्टयोऽर॑मश्नुवन्तु। दमे॑दमे स॒प्त रत्ना॒ दधा॑ना॒ शं नो॑ भूतं द्वि॒पदे॒ शं चतु॑ष्पदे ॥१॥
somārudrā dhārayethām asuryam pra vām iṣṭayo ram aśnuvantu | dame-dame sapta ratnā dadhānā śaṁ no bhūtaṁ dvipade śaṁ catuṣpade ||
सोमा॑रुद्रा। धा॒रये॑थाम्। असु॒र्य॑म्। प्र। वा॒म् इ॒ष्टयः॑। अर॑म्। अ॒श्नु॒व॒न्तु॒। दमे॑ऽदमे। स॒प्त। रत्ना॑। दधा॑ना। शम्। नः॒। भू॒त॒म्। द्वि॒ऽपदे॑। शम्। चतुः॑ऽपदे ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब चार ऋचावाले चौहत्तरवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में राजा और वैद्य कैसे श्रेष्ठ हों, इस विषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथ राजा वैद्यश्च कीदृशौ वरौ स्यातामित्याह ॥
हे राजवैद्यौ सोमारुद्रेव ! युवामसुर्यं धारयेथां यतो वामिष्टयोऽरं प्राश्नुवन्तु दमेदमे सप्त रत्ना दधाना सन्तौ नो द्विपदे शं भूतं चतुष्पदे शं भूतम् ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात औषधी व प्राणाप्रमाणे वैद्य व राजाच्या कामाचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.