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घृ॒तेन॒ द्यावा॑पृथि॒वी अ॒भीवृ॑ते घृत॒श्रिया॑ घृत॒पृचा॑ घृता॒वृधा॑। उ॒र्वी पृ॒थ्वी हो॑तृ॒वूर्ये॑ पु॒रोहि॑ते॒ ते इद्विप्रा॑ ईळते सु॒म्नमि॒ष्टये॑ ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ghṛtena dyāvāpṛthivī abhīvṛte ghṛtaśriyā ghṛtapṛcā ghṛtāvṛdhā | urvī pṛthvī hotṛvūrye purohite te id viprā īḻate sumnam iṣṭaye ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

घृ॒तेन॑। द्यावा॑पृथि॒वी इति॑। अ॒भीवृ॑ते॒ इत्य॒भिऽवृ॑ते। घृ॒त॒ऽश्रिया॑। घृ॒त॒ऽपृचा॑। घृ॒त॒ऽवृधा॑। उ॒र्वी इति॑। पृ॒थ्वी इति॑। हो॒तृ॒ऽवूर्ये॑। पु॒रोहि॑ते॒ इति॑ पु॒रःऽहि॑ते। ते इति॑। इत्। विप्राः॑। ई॒ळ॒ते॒। सु॒म्नम्। इ॒ष्टये॑ ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:70» मन्त्र:4 | अष्टक:5» अध्याय:1» वर्ग:14» मन्त्र:4 | मण्डल:6» अनुवाक:6» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे कैसे हैं और क्या प्राप्त कराते हैं, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्या ! जो (विप्राः) मेधावी बुद्धिमान् पुरुष (घृतेन) जल से तथा (उर्वी) बहुत गुण और पदार्थों से युक्त (अभीवृते) सब ओर से वर्त्तमान (घृतश्रिया) अत्यन्त प्रकाश वा अवकाश धन जिनका (घृतपृचा) जो प्रकाश वा जल से अच्छे प्रकार सम्बन्ध किये हुए और (घृतावृधा) तेज से बढ़ते हैं तथा (होतृवूर्ये) होता जन से स्वीकार होते और (पुरोहिते) आगे से हित को धारण करते हुए (इष्टये) सङ्ग के लिये (पृथ्वी) बहुत विस्तारयुक्त जो (द्यावापृथिवी) बिजुली और अन्तरिक्ष हैं उनकी (ईळते) प्रशंसा करते हैं (ते, इत्) वे ही सब से (सुम्नम्) सुख पाते हैं ॥४॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे उत्तम बुद्धिमान् जन बिजुली और अन्तरिक्ष की विद्या को जान के कार्यों में लगाते हैं, वैसे तुम भी उनका प्रयोग करो ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्ते कीदृश्यौ किं प्रापयतश्चेत्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! ये विप्रा घृतेन युक्ते उर्वी अभीवृते घृतश्रिया घृतपृचा घृतावृधा होतृवूर्ये पुरोहिते इष्टये पृथ्वी द्यावापृथिवी ईळते त इत्सर्वेभ्यः सुम्नं लभन्ते ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (घृतेन) उदकेन (द्यावापृथिवी) विद्युदन्तरिक्षे (अभीवृते) येऽभितो वर्त्तेते (घृतश्रिया) घृतं प्रदीपनमवकाशनञ्च श्रीर्ययोस्ते (घृतपृचा) घृतेन प्रदीपनेनोदकेन वा सम्पृक्ते (घृतावृधा) घृतेन तेजसा वर्धेते (उर्वी) बहुगुणद्रव्ययुक्ते (पृथ्वी) विस्तीर्णे (होतृवूर्य्ये) होतारो व्रियन्ते ययोस्ते (पुरोहिते) पुरस्ताद्धितं दधत्यौ (ते) (इत्) (विप्राः) मेधाविनः (ईळते) स्तुवन्ति (सुम्नम्) सुखम् (इष्टये) सङ्गतये ॥४॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! यथा प्राज्ञा विद्युतोऽन्तरिक्षस्य च विद्यां विज्ञाय कार्येषु संप्रयुञ्जते तथैते यूयमपि सम्प्रयुङ्ध्वम् ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! जसे उत्तम बुद्धिमान लोक विद्युत व अंतरिक्षाची विद्या जाणून त्यांना कार्यात संयुक्त करतात तसा प्रयोग तुम्हीही करा. ॥ ४ ॥