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प्र स॒म्राजे॑ बृह॒ते मन्म॒ नु प्रि॒यमर्च॑ दे॒वाय॒ वरु॑णाय स॒प्रथः॑। अ॒यं य उ॒र्वी म॑हि॒ना महि॑व्रतः॒ क्रत्वा॑ वि॒भात्य॒जरो॒ न शो॒चिषा॑ ॥९॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra samrāje bṛhate manma nu priyam arca devāya varuṇāya saprathaḥ | ayaṁ ya urvī mahinā mahivrataḥ kratvā vibhāty ajaro na śociṣā ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र। स॒म्ऽराजे॑। बृ॒ह॒ते। मन्म॑। नु। प्रि॒यम्। अर्च॑। दे॒वाय॑। वरु॑णाय। स॒ऽप्रथः॑। अ॒यम्। यः। उ॒र्वी इति॑। म॒हि॒ना। महि॑ऽव्रतः। क्रत्वा॑। वि॒ऽभाति॑। अ॒जरः॑। न। शो॒चिषा॑ ॥९॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:68» मन्त्र:9 | अष्टक:5» अध्याय:1» वर्ग:12» मन्त्र:4 | मण्डल:6» अनुवाक:6» मन्त्र:9


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह राजा कैसा है और उसके लिये क्या उपदेश देना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! (यः) जो (अयम्) यह (सप्रथः) सत्कीर्ति से विख्यात और (महिव्रतः) बड़े-बड़े धर्मयुक्त कर्म जिसके विद्यमान वह (क्रत्वा) प्रज्ञा वा कर्म से (महिना) और महिमा वा (शोचिषा) अपने प्रकाश से (अजरः) वृद्धावस्थारूपी रोग से रहित सूर्य जीवात्मा वा परमात्मा के (न) समान (उर्वी) सूर्यमण्डल और पृथिवी को (विभाति) प्रकाशित करता है उस (वरुणाय) सब से उत्तम (देवाय) अभय देनेवाले (बृहते) बड़े (सम्राजे) अच्छे सूर्य के समान विद्या और नम्रता से प्रकाशमान के लिये (प्रियम्) प्रीति करनेवाले (मन्म) विज्ञान को आप (नु) शीघ्र (प्र, अर्च) सत्कार देवें ॥९॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे विद्वान्जनो ! जो सूर्य के तुल्य, जीव के तुल्य वा परमात्मा के तुल्य शुभ गुण कर्म स्वभावों से देदीप्यमान, विद्या और विनय से युक्त, उत्तम यत्न के साथ वाणी मन और शरीर से पिता के समान प्रजाजनों की पालना करने को प्रयत्न करता है, उस चक्रवर्ती, सर्वोत्कृष्ट, विद्वान् और सत्कार करने योग्य राजा के लिये राज्य में सत्य नीति को आप लोग समझावें, जिससे यह सर्वत्र धर्मयुक्त यशवाला हो ॥९॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स राजा कीदृशोऽस्मै किमुपदेष्टव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे विद्वन् ! योऽयं सप्रथो महिव्रतः क्रत्वा महिना शोचिषाऽजरो नोर्वी विभाति तस्मै वरुणाय देवाय बृहते सम्राजे प्रियं मन्म त्वं नु प्रार्च ॥९॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्र) (सम्राजे) यः सम्यक्सूर्यवद्विद्याविनयाभ्यां राजते तस्मै (बृहते) महते (मन्म) विज्ञानम् (नु) सद्यः (प्रियम्) प्रीतिकरम् (अर्च) सत्कुर्याः (देवाय) अभयदात्रे (वरुणाय) सर्वोत्कृष्टाय (सप्रथः) सत्कीर्त्या प्रख्यातः (अयम्) (यः) (उर्वी) द्यावापृथिव्यौ (महिना) महिम्ना (महिव्रतः) महान्ति व्रतानि धर्म्याणि कर्माणि यस्य सः (क्रत्वा) प्रज्ञया कर्मणा वा (विभाति) (अजरः) जरारोगरहितः सूर्य्यो जीवात्मा परमात्मा वा (न) इव (शोचिषा) स्वप्रकाशेन ॥९॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। हे विद्वांसः ! सूर्यवज्जीववत्परमात्मवच्छुभगुणकर्मस्वभावैर्देदीप्यमानो यो विद्याविनयावृतः प्रयत्नेन वाङ्मनःशरीरैः पितृवत्प्रजाः पालयितुं प्रयतते तस्मै चक्रवर्त्तिने सर्वोत्कृष्टाय विदुषे सत्कर्त्तव्याय राज्ञे राज्ये प्रतिदिनं सत्यां नीतिं भवन्तो बोधयन्तु येनाऽयं सर्वत्र धर्मयशा भवेत् ॥९॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे विद्वानांनो ! जो सूर्यासारखा जीवासारखा, परमात्म्यासारखा शुभ गुण, कर्म, स्वभावाने देदीप्यमान, विद्या व विनयाने युक्त, उत्तम वाणी, मन, शरीराने पित्यासारखा प्रजाजनांचे पालन करण्याचा प्रयत्न करतो, त्या चक्रवर्ती, सर्वोत्कृष्ट, विद्वान व सत्कार करण्यायोग्य राजासाठी राज्यात सत्य नीती तुम्ही सर्वांना समजावून सांगा. ज्यामुळे तो सर्वत्र धार्मिक यशस्वी व्हावा. ॥ ९ ॥