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नू न॑ इन्द्रावरुणा गृणा॒ना पृ॒ङ्क्तं र॒यिं सौ॑श्रव॒साय॑ देवा। इ॒त्था गृ॒णन्तो॑ म॒हिन॑स्य॒ शर्धो॒ऽपो न ना॒वा दु॑रि॒ता त॑रेम ॥८॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

nū na indrāvaruṇā gṛṇānā pṛṅktaṁ rayiṁ sauśravasāya devā | itthā gṛṇanto mahinasya śardho po na nāvā duritā tarema ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

नु। नः॒। इ॒न्द्रा॒व॒रु॒णा॒। गृ॒णा॒ना। पृ॒ङ्क्तम्। र॒यिम्। सौ॒श्र॒व॒साय॑। दे॒वा॒। इ॒त्था। गृ॒णन्तः॑। म॒हिन॑स्य। शर्धः॑। अ॒पः। न। ना॒वा। दुः॒ऽइ॒ता। त॒रे॒म॒ ॥८॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:68» मन्त्र:8 | अष्टक:5» अध्याय:1» वर्ग:12» मन्त्र:3 | मण्डल:6» अनुवाक:6» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे राजप्रजाजन कैसे वर्त्तें, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्रावरुणा) सूर्य और चन्द्रमा के तुल्य वर्त्तमान (नः) हम लोगों को (गृणाना) प्रशंसा करने और (देवा) देनेवाले राजप्रजाजनो ! जैसे तुम दोनों (सौश्रवसाय) उत्तम यश होने के लिये (रयिम्) धन का (पृङ्क्तम्) सम्बन्ध करो (इत्था) ऐसे (महिनस्य) बड़े के (शर्धः) बल की (गृणन्तः) प्रशंसा करते हुए हम लोग (नावा) नाव से (अपः) जलों को (न) जैसे वैसे (दुरिता) दुःख से उल्लङ्घन करने योग्य कष्टों को (नू) शीघ्र (तरेम) तरें ॥८॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो राजप्रजाजन आपस में प्रीतिवाले होकर अन्नादि पदार्थों के लिये धन इकट्ठा करते हैं, वे सूर्य और चन्द्रमा के तुल्य प्रतापी होकर जैसे बड़ी नौका से दुःख से तरने योग्य समुद्रों को जन पार होते हैं, वैसे ही बड़े बड़े दुःख और दारिद्र्यों को शीघ्र तरते हैं ॥८॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्ते राजप्रजाजनाः कथं वर्त्तेरन्नित्याह ॥

अन्वय:

हे इन्द्रावरुणेव नो गृणाना देवा राजप्रजाजनौ ! यथा युवां सौश्रवसाय रयिं पृङ्क्तमित्था महिनस्य शर्धो गृणन्तो वयं नावाऽपो न दुरिता नू तरेम ॥८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (नू) क्षिप्रम् (नः) अस्मान् (इन्द्रावरुणा) सूर्य्यचन्द्रवद्वर्त्तमानौ राजप्रजाजनौ (गृणाना) स्तुवन्तौ (पृङ्क्तम्) संबध्नीतम् (रयिम्) श्रियम् (सौश्रवसाय) सुश्रवसो भावाय (देवा) दातारौ (इत्था) अनेन प्रकारेण (गृणन्तः) स्तुवन्तः (महिनस्य) महतः (शर्धः) बलम् (अपः) जलानि (न) इव (नावा) नौकया (दुरिता) दुःखेनोल्लङ्घयितुं योग्यानि (तरेम) ॥८॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! ये राजप्रजाजनाः परस्परस्मिन् प्रीताः सन्तोऽन्नाद्याय श्रियं संचिन्वन्ति ते सूर्य्यचन्द्रवत्प्रतापिनो भूत्वा यथा महत्या नौकया दुर्गानपि समुद्रान् जनास्तरन्ति तथैव महान्त्यपि दुःखदारिद्र्याणि सद्यस्तरन्ति ॥८॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जे राज प्रजाजन परस्पर प्रेमाने अन्न इत्यादी पदार्थांसाठी धन एकत्र करतात ते सूर्य व चंद्राप्रमाणे पराक्रमी बनतात. जसे मोठ्या नावेतून लोक समुद्र तरून जातात तसेच ते मोठमोठ्या दुःख व दारिद्र्यातून तत्काळ तरून जातात. ॥ ८ ॥