श्रु॒ष्टी वां॑ य॒ज्ञ उद्य॑तः स॒जोषा॑ मनु॒ष्वद्वृ॒क्तब॑र्हिषो॒ यज॑ध्यै। आ य इन्द्रा॒वरु॑णावि॒षे अ॒द्य म॒हे सु॒म्नाय॑ म॒ह आ॑व॒वर्त॑त् ॥१॥
śruṣṭī vāṁ yajña udyataḥ sajoṣā manuṣvad vṛktabarhiṣo yajadhyai | ā ya indrāvaruṇāv iṣe adya mahe sumnāya maha āvavartat ||
श्रु॒ष्टी। वा॒म्। य॒ज्ञः। उत्ऽय॑तः। स॒ऽजोषाः॑। म॒नु॒ष्वत्। वृ॒क्तऽब॑र्हिषः। यज॑ध्यै। आ। यः। इन्द्रा॒वरु॑णौ। इ॒षे। अ॒द्य। म॒हे। सु॒म्नाय॑। म॒हे। आ॑ऽव॒वर्त॑त् ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब ग्यारह ऋचावाले अड़सठवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में विद्वानों को अच्छे प्रकार कौन पढ़ाने चाहियें, इस विषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथ विद्वद्भिः के सम्यगध्यापनीया इत्याह ॥
हे इन्द्रावरुणौ ! य उद्यतस्सजोषा मनुष्यवद्वृक्तबर्हिषो वां यज्ञ आ यजध्या अद्य महे सुम्नाय मह इषे श्रुष्ट्याववर्त्ततं युवामध्यापयेतम् ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात वरुणप्रमाणे राजा प्रजेच्या कृत्याचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.