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विश्वे॑षां वः स॒तां ज्येष्ठ॑तमा गी॒र्भिर्मि॒त्रावरु॑णा वावृ॒धध्यै॑। सं या र॒श्मेव॑ य॒मतु॒र्यमि॑ष्ठा॒ द्वा जनाँ॒ अस॑मा बा॒हुभिः॒ स्वैः ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

viśveṣāṁ vaḥ satāṁ jyeṣṭhatamā gīrbhir mitrāvaruṇā vāvṛdhadhyai | saṁ yā raśmeva yamatur yamiṣṭhā dvā janām̐ asamā bāhubhiḥ svaiḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

विश्वे॑षाम्। वः॒। स॒ताम्। ज्येष्ठ॑ऽतमा। गीः॒ऽभिः। मि॒त्रावरु॑णा। व॒वृ॒धध्यै॑। सम्। या। र॒श्माऽइ॑व। य॒मतुः॑। यमि॑ष्ठा। द्वा। जना॑न्। अस॑मा। बा॒हुऽभिः॑। स्वैः ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:67» मन्त्र:1 | अष्टक:5» अध्याय:1» वर्ग:9» मन्त्र:1 | मण्डल:6» अनुवाक:6» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब ग्यारह ऋचावाले सड़सठवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में मनुष्यों को किनका सत्कार करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (विश्वेषाम्) सब (सताम्) सज्जन जो (वः) आप लोग उनमें (या) जो (ज्येष्ठतमा) अतीव ज्येष्ठ (यमिष्ठा) अतीव नियम को वर्त्तनेवाले (असमा) अतुल्य अर्थात् सब से अधिक (मित्रावरुणा) प्राण और उदान के समान अध्यापक और उपदेशक (वावृधध्यै) अत्यन्त बढ़ने के लिये (जनान्) मनुष्यों को (रश्मेव) किरण वा रज्जु के समान (गीर्भिः) वाणियों से (सम्, यमतुः) नियमयुक्त करते हैं और (द्वा) दोनों सज्जन (स्वैः) अपनी (बाहुभिः) भुजाओं से मनुष्यों को किरण वा रस्सी के समान नियम में लाते हैं, उन अध्यापक और उपदेशकों का सदैव सत्कार करो ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो विद्या और उत्तम शील आदि गुणों से श्रेष्ठ, अधर्म से निवृत्त कर धर्म के बीच प्रवृत्त करानेवाले, अध्यापन और उपदेश से सूर्य के समान उत्तम बुद्धि के प्रकाश करनेवाले हों, उन्हीं का सदा सत्कार करो ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ मनुष्यैः केषां सत्कारः कर्त्तव्य इत्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! विश्वेषां सतां वो या ज्येष्ठतमा यमिष्ठा असमा मित्रावरुणा वावृधध्यै जनान् रश्मेव गीर्भिः संयमतुर्द्वा स्वैर्बाहुभिर्जनान् रश्मेव सं यमतुस्तावध्यापकोपदेशकौ यूयं सदा सत्कुरुत ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (विश्वेषाम्) सर्वेषाम् (वः) युष्माकम् (सताम्) वर्त्तमानानां सत्पुरुषाणां मध्ये (ज्येष्ठतमा) अतिशयेन ज्येष्ठौ (गीर्भिः) वाग्भिः (मित्रावरुणा) प्राणोदानाविवऽध्यापकोपदेशकौ (वावृधध्यै) अतिशयेन वर्धितुम् (सम्) (या) यौ (रश्मेव) किरणवद्रज्जुवद्वा (यमतुः) संयच्छतः (यमिष्ठा) अतिशयेन यन्तारौ (द्वा) द्वौ (जनान्) (असमा) अतुल्यौ सर्वेभ्योऽधिकौ (बाहुभिः) भुजैः (स्वैः) स्वकीयैः ॥१॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! ये विद्यासुशीलतादिगुणैः श्रेष्ठा अधर्मान्निवर्त्य धर्मे प्रवर्त्तयितारोऽध्यापनोपदेशाभ्यां सूर्यवत्प्रज्ञाप्रकाशका भवेयुस्तेषामेव सत्कारं सदैव कुरुत ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात प्राण उदानाप्रमाणे अध्यापक व उपदेशकांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जो विद्या व उत्तम शील इत्यादी गुणांनी श्रेष्ठ, अधर्मापासून दूर करून धर्मात प्रवृत्त करणारे, अध्यापन व उपदेशाने सूर्याप्रमाणे उत्तम बुद्धीचा प्रकाश करणारे असतात त्यांचाच सत्कार करा. ॥ १ ॥