वपु॒र्नु तच्चि॑कि॒तुषे॑ चिदस्तु समा॒नं नाम॑ धे॒नु पत्य॑मानम्। मर्ते॑ष्व॒न्यद्दो॒हसे॑ पी॒पाय॑ स॒कृच्छु॒क्रं दु॑दुहे॒ पृश्नि॒रूधः॑ ॥१॥
vapur nu tac cikituṣe cid astu samānaṁ nāma dhenu patyamānam | marteṣv anyad dohase pīpāya sakṛc chukraṁ duduhe pṛśnir ūdhaḥ ||
वपुः॑। नु। तत्। चि॒कि॒तुषे॑। चि॒त्। अ॒स्तु॒। स॒मा॒नम्। नाम॑। धे॒नु। पत्य॑मानम्। मर्ते॑षु। अ॒न्यत्। दो॒हसे॑। पी॒पाय॑। स॒कृत्। शु॒क्रम्। दु॒दु॒हे॒। पृश्निः॑। ऊधः॑ ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब ग्यारह ऋचावाले छियासठवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में फिर वह किसके तुल्य क्या करती है, इस विषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनः सा किंवत्किं करोतीत्याह ॥
हे पत्नि ! यथोधः पृश्निश्च सकृञ्छुक्रं दुदुहे तथा धेन्विव त्वं मर्त्तेषु पत्यमानं पतिमन्यद्दोहसे पीपायैवं भूतायास्तव यच्चित्समानं वपुर्नाम च तच्चिकितुषे पत्ये न्वस्तु ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात वायूच्या गुणाप्रमाणे विद्वान व वीरांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर पूर्व सूक्तार्थाची संगती जाणावी.