श्रवो॒ वाज॒मिष॒मूर्जं॒ वह॑न्ती॒र्नि दा॒शुष॑ उषसो॒ मर्त्या॑य। म॒घोनी॑र्वी॒रव॒त्पत्य॑माना॒ अवो॑ धात विध॒ते रत्न॑म॒द्य ॥३॥
śravo vājam iṣam ūrjaṁ vahantīr ni dāśuṣa uṣaso martyāya | maghonīr vīravat patyamānā avo dhāta vidhate ratnam adya ||
श्रवः॑। वाज॑म्। इष॑म्। ऊर्ज॑म्। वह॑न्तीः। नि। दा॒शुषे॑। उ॒ष॒सः॒। मर्त्या॑य। म॒घोनीः॑। वी॒रऽव॑त्। पत्य॑मानाः। अवः॑। धा॒त॒। वि॒ध॒ते। रत्न॑म्। अ॒द्य ॥३॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर वे कैसी हों, इस विषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्ताः कीदृश्यः स्युरित्याह ॥
हे पुरुषा ! या उषस इव दाशुषे विधते मर्त्याय श्रवो वाजमिषमूर्जं वहन्तीर्मघोनीर्वीरवत्पत्यमानाः स्त्रियोऽद्य रत्नमवः प्राप्नुवन्ति ता यूयं नि धात ॥३॥