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आ वां॒ वयोऽश्वा॑सो॒ वहि॑ष्ठा अ॒भि प्रयो॑ नासत्या वहन्तु। प्र वां॒ रथो॒ मनो॑जवा असर्जी॒षः पृ॒क्ष इ॒षिधो॒ अनु॑ पू॒र्वीः ॥७॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā vāṁ vayo śvāso vahiṣṭhā abhi prayo nāsatyā vahantu | pra vāṁ ratho manojavā asarjīṣaḥ pṛkṣa iṣidho anu pūrvīḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। वा॒म्। वयः॑। अश्वा॑सः। वहि॑ष्ठाः। अ॒भि। प्रयः॑। ना॒स॒त्या॒। व॒ह॒न्तु॒। प्र। वा॒म्। रथः॑। मनः॑ऽजवाः। अ॒स॒र्जि॒। इ॒षः। पृ॒क्षः। इ॒षिधः॑। अनु॑। पू॒र्वीः ॥७॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:63» मन्त्र:7 | अष्टक:5» अध्याय:1» वर्ग:4» मन्त्र:2 | मण्डल:6» अनुवाक:6» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्य किससे क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (नासत्या) सत्य आचरण करनेवालो ! जो (वाम्) तुम दोनों के (वहिष्ठाः) अतीव यानों के ले जानेवाले (मनोजवाः) मन के समान जिनकी गति वे (अश्वासः) शीघ्रगामी अग्नि आदि (वयः) पक्षियों के समान (प्रयः) अन्नादि पदार्थ को (आ, अभि, वहन्तु) सन्मुख पहुँचावें जिससे (पृक्षः) अच्छे प्रकार प्राप्त होने योग्य (इषिधः) इच्छा प्रकाश करनेवाली (पूर्वीः) प्राचीन (इषः) अन्नादि वस्तुओं में से प्रत्येक (अनु, असर्जि) रची जाती वह (रथः) रथ (वाम्) तुम दोनों को (प्र) पहुँचावे ॥७॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो आप लोग अग्न्यादि पदार्थों के प्रयोगों को जानो तो विमानादि यानों से पक्षियों के समान अन्तरिक्ष में जा सको, जिससे चाहे हुए पदार्थों को प्राप्त होकर सर्वदा आनन्दित होओ ॥७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्याः केन किं कुर्युरित्याह ॥

अन्वय:

हे नासत्या ! ये वां वहिष्ठा मनोजवा अश्वासो वयो न प्रय आऽभि वहन्तु येन पृक्ष इषिधः पूर्वीरिषोऽन्वसर्जि स रथो वां प्रवहतु ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) (वाम्) युवयोः (वयः) पक्षिण इव (अश्वासः) आशुगामिनोऽग्न्यादयः (वहिष्ठाः) अतिशयेन यानानां वोढारः (अभि) आभिमुख्ये (प्रयः) अन्नादिकम् (नासत्या) अविद्यमानासत्याचरणौ (वहन्तु) प्राप्नुवन्तु (प्र) (वाम्) (रथः) (मनोजवाः) मनोवद्गतयः (असर्जि) सृज्येत (इषः) अन्नाद्याः (पृक्षः) सम्प्राप्तव्याः (इषिधः) इच्छाप्रकाशिकाः (अनु) (पूर्वीः) प्राचीनाः ॥७॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यदि भवन्तोऽग्न्यादिप्रयोगाञ्जानीयुस्तर्हि विमानादियानैः पक्षिण इवान्तरिक्षे गन्तुं शक्नुयुर्येनाऽभीष्टानि प्राप्य सर्वदाऽऽनन्दिता भवेयुः ॥७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जर तुम्ही अग्नी इत्यादी पदार्थांचे प्रयोग जाणाल तर विमान इत्यादी यानांनी पक्ष्यांप्रमाणे अंतरिक्षात जाऊ शकाल. ज्यामुळे इच्छित पदार्थ प्राप्त करून सदैव आनंदित व्हाल. ॥ ७ ॥