वांछित मन्त्र चुनें

ता यो॑धिष्टम॒भि गा इ॑न्द्र नू॒नम॒पः स्व॑रु॒षसो॑ अग्न ऊ॒ळ्हाः। दिशः॒ स्व॑रु॒षस॑ इन्द्र चि॒त्रा अ॒पो गा अ॑ग्ने युवसे नि॒युत्वा॑न् ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tā yodhiṣṭam abhi gā indra nūnam apaḥ svar uṣaso agna ūḻhāḥ | diśaḥ svar uṣasa indra citrā apo gā agne yuvase niyutvān ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ता। यो॒धि॒ष्ट॒म्। अ॒भि। गाः। इ॒न्द्र॒। नू॒नम्। अ॒पः। स्वः॑। उ॒षसः॑। अ॒ग्ने॒। ऊ॒ळ्हाः। दिशः॑। स्वः॑। उ॒षसः॑। इ॒न्द्र॒। चि॒त्राः। अ॒पः। गाः। अ॒ग्ने॒। यु॒व॒से॒। नि॒युत्वा॑न् ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:60» मन्त्र:2 | अष्टक:4» अध्याय:8» वर्ग:27» मन्त्र:2 | मण्डल:6» अनुवाक:5» मन्त्र:2


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्य क्या करके सुख पाते हैं, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त (अग्ने) विद्वन् वा ! आप (स्वः) आदित्य (उषसः) प्रभातवेलाओं को जैसे वैसे (गाः) पृथिवी और (नूनम्) निश्चय से (अपः) कर्म को (युवसे) संयुक्त करते हो और जिनसे (दिशः) दिशायें (ऊळ्हाः) प्राप्त हुईं (ता) उनको जानकर तुम दोनों (अभि, योधिष्टम्) सब ओर से युद्ध करो। हे (इन्द्र) दुःखविदारक=दुःख के नाश करनेवाले वा (अग्ने) विद्वान् जन (नियुत्वान्) ईश्वर के समान न्यायाधीश ! आप (स्वः) आदित्य (उषसः) प्रभातवेलाओं के समान (चित्राः) चित्रविचित्र (अपः) उदक (गाः) और वाणियों को संयुक्त करते हो, इससे ईश्वर के समान न्यायकर्त्ता हो ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य वायु और बिजुली के तुल्य पराक्रमी होकर युद्ध का आचरण करें, वे उषाकाल को जैसे सूर्य उसी के समान प्रजाओं को न्याय से प्रकाश को प्राप्त कराय कर और सर्व दिशाओं में कीर्तिवाले हो अद्भुत वाणी, बलों और भूमि के राज्य को प्राप्त होते हैं ॥२॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्याः किं कृत्वा सुखं प्राप्नुवन्तीत्याह ॥

अन्वय:

हे इन्द्राग्ने वा ! त्वं स्वरादित्य उषस इव गा नूनमपो युवसे याभ्यां दिश उळ्हास्ता विदित्वा युवामभि योधिष्टम्। हे इन्द्राग्ने वा नियुत्वाँस्त्वं स्वरादित्य उषस इव चित्रा अपो गा युवसे तस्मान्नियुत्वानसि ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ता) तौ (योधिष्टम्) युध्येयाताम् (अभि) (गाः) पृथिवीः (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त (नूनम्) निश्चयेन (अपः) कर्म (स्वः) आदित्यः (उषसः) प्रभातवेलाः (अग्ने) विद्वन् (ऊळ्हाः) प्राप्ताः (दिशः) (स्वः) आदित्यः (उषसः) (इन्द्र) दुःखविदारक (चित्राः) (अपः) उदकानि (गाः) वाचः (अग्ने) विद्वन् (युवसे) संयोजयसि (नियुत्वान्) ईश्वर इव न्यायेशः ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्या वायुविद्युद्वत्पराक्रमिणो भूत्वा युद्धमाचरेयुस्त उषसः सूर्य इव प्रजा न्यायेन प्रकाशयित्वा सर्वदिक्कीर्त्तयो भूत्वाऽद्भुता वाचो बलानि भूमिराज्यं च प्राप्नुवन्ति ॥२॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे वायू व विद्युतप्रमाणे पराक्रमी बनून युद्ध करतात ती सूर्य जसा उषःकाली असतो त्याप्रमाणे प्रजेमध्ये न्यायाचा प्रकाश करतात व दिगदिगंतरी त्यांची कीर्ती पसरते. तसेच ती अद्भुत वाणी, बल व भूमीचे राज्य प्राप्त करतात. ॥ २ ॥