एहि॒ वां वि॑मुचो नपा॒दाघृ॑णे॒ सं स॑चावहै। र॒थीर्ऋ॒तस्य॑ नो भव ॥१॥
ehi vāṁ vimuco napād āghṛṇe saṁ sacāvahai | rathīr ṛtasya no bhava ||
आ। इ॒हि॒। वाम्। वि॒ऽमु॒चः॒। न॒पा॒त्। आघृ॑णे। सम्। स॒चा॒व॒है॒। र॒थीः। ऋ॒तस्य॑। नः॒। भ॒व॒ ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब छः ऋचावाले पचपनवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में किसका संग करना योग्य है, इस विषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथ कः सङ्गन्तव्य इत्याह ॥
हे आघृणे नपात् ! त्वं न ऋतस्य रथीर्भव न आ इहि, हे अध्यापकोपदेशकौ ! वामुक्तविद्वंस्त्वं विमुचस्त्वमहञ्च सं सचावहै ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.