बृ॒हद्भि॑रग्ने अ॒र्चिभिः॑ शु॒क्रेण॑ देव शो॒चिषा॑। भ॒रद्वा॑जे समिधा॒नो य॑विष्ठ्य रे॒वन्नः॑ शुक्र दीदिहि द्यु॒मत्पा॑वक दीदिहि ॥७॥
bṛhadbhir agne arcibhiḥ śukreṇa deva śociṣā | bharadvāje samidhāno yaviṣṭhya revan naḥ śukra dīdihi dyumat pāvaka dīdihi ||
बृ॒हत्ऽभिः॑। अ॒ग्ने॒। अ॒र्चिऽभिः॑। शु॒क्रेण॑। दे॒व॒। शो॒चिषा॑। भ॒रत्ऽवा॑जे। स॒म्ऽइ॒धा॒नः। य॒वि॒ष्ठ्य॒। रे॒वत्। नः॒। शु॒क्र॒। दी॒दि॒हि॒। द्यु॒ऽमत्। पा॒व॒क॒। दी॒दि॒हि॒ ॥७॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर मनुष्यों को कैसा वर्त्तना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनर्मनुष्यैः कथं वर्त्तितव्यमित्याह ॥
हे शुक्र पावक यविष्ठ्य देवाग्ने ! यथा वह्निर्बृहद्भिरर्चिभिर्भरद्वाजे समिधानो नो द्युमद्रेवद्ददाति तथा शुक्रेण शोचिषैतद्दीदिहि, विद्याविनये च दीदिहि ॥७॥