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बृ॒हद्भि॑रग्ने अ॒र्चिभिः॑ शु॒क्रेण॑ देव शो॒चिषा॑। भ॒रद्वा॑जे समिधा॒नो य॑विष्ठ्य रे॒वन्नः॑ शुक्र दीदिहि द्यु॒मत्पा॑वक दीदिहि ॥७॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

bṛhadbhir agne arcibhiḥ śukreṇa deva śociṣā | bharadvāje samidhāno yaviṣṭhya revan naḥ śukra dīdihi dyumat pāvaka dīdihi ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

बृ॒हत्ऽभिः॑। अ॒ग्ने॒। अ॒र्चिऽभिः॑। शु॒क्रेण॑। दे॒व॒। शो॒चिषा॑। भ॒रत्ऽवा॑जे। स॒म्ऽइ॒धा॒नः। य॒वि॒ष्ठ्य॒। रे॒वत्। नः॒। शु॒क्र॒। दी॒दि॒हि॒। द्यु॒ऽमत्। पा॒व॒क॒। दी॒दि॒हि॒ ॥७॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:48» मन्त्र:7 | अष्टक:4» अध्याय:8» वर्ग:2» मन्त्र:2 | मण्डल:6» अनुवाक:4» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को कैसा वर्त्तना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (शुक्र) शीघ्र कर्म करने (पावक) वा पवित्र करने (यविष्ठ्य) वा अतीव युवा अवस्था रखने वा (देव) देनेवाले (अग्ने) अग्नि के समान वर्त्तमान विद्वन् ! जैसे अग्नि (बृहद्भिः) महान् (अर्चिभिः) तेजों से (भरद्वाजे) विज्ञानादि के धारण करनेवाले व्यवहार में (समिधानः) अच्छे प्रकार देदीप्यमान (नः) हमारे लिये (द्युमत्) प्रशस्त प्रकाश वा (रेवत्) प्रशस्त ऐश्वर्य्य से युक्त धन को देता है, वैसे (शुक्रेण) शुद्ध (शोचिषा) न्याय के प्रकाश से उसे (दीदिहि) प्रकाशित कीजिये, तथा विद्या और नम्रता (दीदिहि) दीजिये ॥७॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो विद्वान् जन सूर्य के समान शुभ गुणों में बल वा सुशीलता से लक्ष्मी को प्राप्त होकर प्रकाशित होते हैं, वे सत्कार करने योग्य हैं ॥७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः कथं वर्त्तितव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे शुक्र पावक यविष्ठ्य देवाग्ने ! यथा वह्निर्बृहद्भिरर्चिभिर्भरद्वाजे समिधानो नो द्युमद्रेवद्ददाति तथा शुक्रेण शोचिषैतद्दीदिहि, विद्याविनये च दीदिहि ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (बृहद्भिः) महद्भिः (अग्ने) अग्निरिव वर्त्तमान (अर्चिभिः) तेजोभिः (शुक्रेण) शुद्धेन (देव) दातः (शोचिषा) न्यायप्रकाशेन (भरद्वाजे) विज्ञानादिधारके (समिधानः) देदीप्यमानः (यविष्ठ्य) अतिशयेन युवन् (रेवत्) प्रशस्तैश्वर्ययुक्तं धनम् (नः) अस्मभ्यम् (शुक्र) आशुकर्त्तः (दीदिहि) प्रकाशय (द्युमत्) प्रशस्तप्रकाशयुक्तम् (पावक) पवित्रकर्त्तः (दीदिहि) देहि ॥७॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये विद्वांसस्सूर्यवच्छुभेषु गुणेषु बलेन सुशीलत्वेन वा श्रियं प्राप्य प्रकाशन्ते ते सत्कर्त्तव्या भवन्ति ॥७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे विद्वान लोक प्रकाशमान सूर्याप्रमाणे शुभ, गुण, बल किंवा सुशीलता याद्वारे लक्ष्मी प्राप्त करून प्रसिद्ध होतात ते सत्कार करण्यायोग्य असतात. ॥ ७ ॥