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देवता: इन्द्र: ऋषि: गर्गः छन्द: बृहती स्वर: मध्यमः

यु॒जा॒नो ह॒रिता॒ रथे॒ भूरि॒ त्वष्टे॒ह रा॑जति। को वि॒श्वाहा॑ द्विष॒तः पक्ष॑ आसत उ॒तासी॑नेषु सू॒रिषु॑ ॥१९॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yujāno haritā rathe bhūri tvaṣṭeha rājati | ko viśvāhā dviṣataḥ pakṣa āsata utāsīneṣu sūriṣu ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यु॒जा॒नः। ह॒रिता॑। रथे॑। भूरि॑। त्वष्टा॑। इ॒ह। रा॒ज॒ति॒। कः। वि॒श्वाहा॑। द्वि॒ष॒तः। पक्षः॑। आ॒स॒ते॒। उ॒त। आसी॑नेषु। सू॒रिषु॑ ॥१९॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:47» मन्त्र:19 | अष्टक:4» अध्याय:7» वर्ग:33» मन्त्र:4 | मण्डल:6» अनुवाक:4» मन्त्र:19


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह जीव इस देह में कैसा वर्त्ताव करे, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जैसे ( कः) कोई भी सारथी (रथे) सुन्दर वाहन के सदृश शरीर में (हरिता) ले चलनेवाले घोड़ों को (युजानः) जोड़ता हुआ (भूरि) बहुत (राजति) प्रकाशित होता है, वैसे (त्वष्टा) सूक्ष्म करनेवाला जीव (इह) इस शरीर में (राजति) प्रकाशित होता है और (कः) कौन (इह) इस शरीर में (विश्वाहा) सब दिन (द्विषतः) द्वेष से युक्त का (पक्षः) ग्रहण करता (आसते) है और (उत) भी (आसीनेषु) स्थित (सूरिषु) विद्वानों में मूर्ख का आश्रय कौन करता है ॥१९॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! सदा ही मूर्खों का पक्ष त्याग के विद्वानों के पक्ष में वर्त्ताव करिये और जैसे अच्छा सारथी घोड़ों को अच्छे प्रकार वश में करके रथ में जोड़ कर सुख से गमन आदि कार्यों को सिद्ध करता है, वैसे जितेन्द्रिय जीव सम्पूर्ण अपने प्रयोजनों को सिद्ध कर सकता है और जैसे कोई दुष्ट सारथी घोड़ों से युक्त रथ में स्थित होकर दुःखी होता है, वैसे ही अजित इन्द्रियाँ जिसमें ऐसे शरीर में स्थित होकर जीव दुःखी होता है ॥१९॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स जीवोऽत्र देहे कथं वर्त्तेतेत्याह ॥

अन्वय:

यथा कश्चित्सारथी रथे हरिता युजानो भूरि राजति तता त्वष्टेह शरीरे राजति क इह विश्वाहा द्विषतः पक्ष आसते, उताप्यासीनेषु सूरिषु मूर्खाश्रयं कः करोति ॥१९॥

पदार्थान्वयभाषाः - (युजानः) समादधानः (हरिता) हरणशीलावश्वौ (रथे) रमणीये यान इव शरीरे (भूरि) बहु (त्वष्टा) तनूकर्त्ता जीवः (इह) अस्मिञ्छरीरे (राजति) प्रकाशते (कः) (विश्वाहा) सर्वाण्यहानि (द्विषतः) द्वेषयुक्तस्य (पक्षः) परिग्रहः (आसते) आस्ते। अत्र बहुलं छन्दसीत्येकवचनस्य बहुवचनम्। (उत) (आसीनेषु) स्थितेषु (सूरिषु) विद्वत्सु ॥१९॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्याः ! सदैव मूर्खाणां पक्षं विहाय विद्वत्पक्षे वर्त्तन्ताम्। यथा सुसारथिरश्वान् सन्नियम्य रथे योजयित्वा सुखेन गमनादिकार्य्यं साध्नोति तथा जितेन्द्रियो जीवः सर्वाणि स्वप्रयोजनानि साद्धुं शक्नोति यथा कश्चिद्दुष्टसारथिरश्वयुक्ते रथे स्थित्वा दुःखी भवति तथैवाऽजितेन्द्रियशरीरे स्थित्वा जीवो दुःखी जायते ॥१९॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! सदैव मूर्खांच्या पक्षाचा त्याग करून विद्वानाच्या पक्षात राहा. जसा उत्तम सारथी घोड्यांना चांगल्या प्रकारे वश करून रथाला जोडून सुखाने यात्रा करतो, तसा जितेंद्रिय जीव आपल्या संपूर्ण प्रयोजनांना सिद्ध करू शकतो. जसा एखादा दुष्ट सारथी अश्वयुक्त रथात बसूनही दुःखी होतो तसे अजितेंद्रिय शरीरात जीव दुःखी होतो. ॥ १९ ॥