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देवता: इन्द्र: ऋषि: गर्गः छन्द: त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

शृ॒ण्वे वी॒र उ॒ग्रमु॑ग्रं दमा॒यन्न॒न्यम॑न्यमतिनेनी॒यमा॑नः। ए॒ध॒मा॒न॒द्विळु॒भय॑स्य॒ राजा॑ चोष्कू॒यते॒ विश॒ इन्द्रो॑ मनु॒ष्या॑न् ॥१६॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

śṛṇve vīra ugram-ugraṁ damāyann anyam-anyam atinenīyamānaḥ | edhamānadviḻ ubhayasya rājā coṣkūyate viśa indro manuṣyān ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

शृ॒ण्वे। वी॒रः। उ॒ग्रम्ऽउ॑ग्रम्। द॒म॒ऽयन्। अ॒न्यम्ऽअ॑न्यम्। अ॒ति॒ऽने॒नी॒यमा॑नः। ए॒ध॒मा॒न॒ऽद्विट्। उ॒भय॑स्य। राजा॑। चो॒ष्कू॒यते॑। विशः॑। इन्द्रः॑। म॒नु॒ष्या॑न् ॥१६॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:47» मन्त्र:16 | अष्टक:4» अध्याय:7» वर्ग:33» मन्त्र:1 | मण्डल:6» अनुवाक:4» मन्त्र:16


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह राजा कैसा होवे, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मन्त्री जनो ! जो (वीरः) शूरता आदि गुणों से युक्त जन (उग्रमुग्रम्) तेजस्वी तेजस्वी जन को (दमायन्) इन्द्रियों का निग्रह कराता हुआ और (अन्यमन्यम्) दूसरे दूसरे को (अतिनेनीयमानः) अत्यन्त न्याय की व्यवस्था को प्राप्त कराता हुआ (एधमानद्विट्) वृद्धि को प्राप्त होते हुओं से द्वेष करनेवाला और (उभयस्य) राजा तथा प्रजाजन समुदाय का (राजा) न्याय और विनय से प्रकाशमान राजा (इन्द्रः) विद्या और विनय को धारण करनेवाला (विशः, मनुष्यान्) प्रजाजनों को (चोष्कूयते) निरन्तर पुकारता है, उसको मैं न्यायेश (शृण्वे) सुनता हूँ ॥१६॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जो मनुष्य दुष्टों-दुष्टों को ताड़न करता, श्रेष्ठों-श्रेष्ठों का सत्कार करता, अन्य की वृद्धि देख कर द्वेष करनेवालों को दण्ड देता और प्रसन्नों का सत्कार करता हुआ सम्पूर्ण वादी और प्रतिवादी के वचनों को यथावत् सुन के सत्य न्याय को करता है, वही राजा होने के योग्य है ॥१६॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स राजा कीदृशो भवेदित्याह ॥

अन्वय:

हे अमात्या ! यो वीर उग्रमुग्रं दमायन्नन्यमन्यमतिनेनीयमान एधमानद्विळुभयस्य राजेन्द्रो विशो मनुष्याञ्चोष्कूयते तमहं न्यायेशं शृण्वे ॥१६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (शृण्वे) (वीरः) शौर्यादिगुणोपेतः (उग्रमुग्रम्) तेजस्विनं तेजस्विनम् (दमायन्) दमनं कुर्वन् (अन्यमन्यम्) भिन्नं भिन्नम् (अतिनेनीयमानः) भृशं न्यायव्यवस्थां प्रापयन् (एधमानद्विट्) यो वर्धमानान् वर्धमानान् द्वेष्टि सः (उभयस्य) राजप्रजाजनसमुदायस्य (राजा) न्यायविनयाभ्यां प्रकाशमानः (चोष्कूयते) भृशमाह्वयति (विशः) प्रजाः (इन्द्रः) विद्याविनयधरः (मनुष्यान्) ॥१६॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! यो मनुष्यो दुष्टान्दुष्टाँस्ताडयञ्छ्रेष्ठान् सत्कुर्वन्नन्यस्य वृद्धिं दृष्ट्वा द्वेष्टॄन् दञ्डयन् प्रसन्नांश्च सत्कुर्वन् सर्वेषां वादिप्रतिवादिनां वचांसि यथावच्छ्रुत्वा सत्यं न्यायं करोति स एव राजा भवितुमर्हति ॥१६॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! जो सर्व दुष्टांचे ताडन करतो, सर्व श्रेष्ठांचा सत्कार करतो, दुसऱ्याची समृद्धी पाहून द्वेष करणाऱ्यांना दंड देतो व प्रसन्न लोकांचा सत्कार करतो, वादी, प्रतिवादीचे वचन ऐकून न्याय करतो तोच राजा होण्यायोग्य असतो. ॥ १६ ॥