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त्वमेक॑स्य वृत्रहन्नवि॒ता द्वयो॑रसि। उ॒तेदृशे॒ यथा॑ व॒यम् ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvam ekasya vṛtrahann avitā dvayor asi | utedṛśe yathā vayam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वम्। एक॑स्य। वृ॒त्र॒ऽह॒न्। अ॒वि॒ता। द्वयोः॑। अ॒सि॒। उ॒त। ई॒दृशे॑। यथा॑। व॒यम् ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:45» मन्त्र:5 | अष्टक:4» अध्याय:7» वर्ग:21» मन्त्र:5 | मण्डल:6» अनुवाक:4» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर राजा और मन्त्रियों को कैसा वर्त्ताव करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वृत्रहन्) मेघ को नाश करनेवाले सूर्य के समान शत्रुओं के मारनेवाले राजन् ! (यथा) जैसे (वयम्) हम लोग (ईदृशे) ऐसे व्यवहार में (एकस्य) सहायरहित के (उत) और (द्वयोः) राजा और प्रजाजनों के रक्षक होते हैं, वैसे जिससे (त्वम्) आप (अविता) रक्षक (असि) हो, इससे सत्कार करने योग्य हो ॥५॥
भावार्थभाषाः - हे राजन् ! जैसे हम लोग पक्षपात का त्याग करके अपने और अन्य जन का यथावत् न्याय करें, वैसे ही आप करिये। ऐसे धर्म्मयुक्त व्यवहार में वर्त्तमान हम लोगों की सदा ही वृद्धि और मोक्ष होते हैं ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुना राज्ञाऽमात्यैश्च कथं वर्त्तितव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे वृत्रहन् राजन् ! यथा वयमीदृश एकस्योत द्वयो रक्षका भवामस्तथा यतस्त्वमविताऽसि तस्मात् सत्कर्त्तव्योऽसि ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वम्) (एकस्य) असहायस्य (वृत्रहन्) यः सूर्यो वृत्रं हन्ति तद्वच्छत्रुहन्तः (अविता) रक्षकः (द्वयोः) राजप्रजाजनयोः (असि) (उत) (ईदृशे) ईदृग्व्यवहारे (यथा) (वयम्) ॥५॥
भावार्थभाषाः - हे राजन् ! यथा वयं पक्षपातं विहाय स्वकीयपरजनयोर्यथावन्न्यायं कुर्मस्तथैव भवान् करोतु। ईदृशे धर्म्ये वर्त्तमानानामस्माकं सदैवाभ्युदयनिःश्रेयसे भवतः ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे राजा ! जसे आम्ही भेदभाव न करता आपला व इतर लोकांचा न्याय करतो तसे तूही कर. अशा धर्मयुक्त व्यवहाराने आमचा अभ्युदय व निःश्रेयस होतो. ॥ ५ ॥