यो गृ॑ण॒तामिदासि॑था॒पिरू॒ती शि॒वः सखा॑। स त्वं न॑ इन्द्र मृळय ॥१७॥
yo gṛṇatām id āsithāpir ūtī śivaḥ sakhā | sa tvaṁ na indra mṛḻaya ||
यः। गृ॒ण॒ताम्। इत्। आसि॑थ। आ॒पिः। ऊ॒ती। शि॒वः। सखा॑। सः। त्वम्। नः॒। इ॒न्द्र॒। मृ॒ळ॒य॒ ॥१७॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर वह राजा कैसा होवे, इस विषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनः स राजा कीदृग्भवेदित्याह ॥
हे इन्द्र राजन् ! यो गृणतां न आपिश्शिवः सखाऽऽसिथ स इत्त्वमूती नो मृळय ॥१७॥