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ऋ॒तस्य॑ प॒थि वे॒धा अ॑पायि श्रि॒ये मनां॑सि दे॒वासो॑ अक्रन्। दधा॑नो॒ नाम॑ म॒हो वचो॑भि॒र्वपु॑र्दृ॒शये॑ वे॒न्यो व्या॑वः ॥८॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ṛtasya pathi vedhā apāyi śriye manāṁsi devāso akran | dadhāno nāma maho vacobhir vapur dṛśaye venyo vy āvaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ऋ॒तस्य॑। प॒थि। वे॒धाः। अ॒पा॒यि॒। श्रि॒ये। मनां॑सि। दे॒वासः॑। अ॒क्र॒न्। दधा॑नः। नाम॑। म॒हः। वचः॑ऽभिः। वपुः॑। दृ॒शये॑। वे॒न्यः। वि। आ॒व॒रित्या॑वः ॥८॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:44» मन्त्र:8 | अष्टक:4» अध्याय:7» वर्ग:17» मन्त्र:3 | मण्डल:6» अनुवाक:4» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब मनुष्यों को कैसा वर्त्ताव करके क्या प्राप्त करके क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (वेधाः) बुद्धिमान् (ऋतस्य) सत्य के (पथि) मार्ग में (श्रिये) लक्ष्मी के लिये (अपायि) रक्षा करता है और (देवासः) विद्वान् जन (मनांसि) मनों को (अक्रन्) करते हैं और (वचोभिः) वचनों से (महः) कीर्ति के योग से बड़ी (नाम) प्रसिद्धि को (दृशये) दिखाने के लिये (वपुः) अच्छे रूपवाले शरीर को (दधानः) धारण करता (वेन्यः) सुन्दर होता और (वि, आवः) रक्षा करता है, वैसे आप लोग भी यत्न करो ॥८॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि सर्वदा धर्ममार्ग में चलकर धन की उन्नति के लिये मनों को निश्चित करें और धन से प्राप्त हुए धन से अनाथों का पालन, विद्या और धन की वृद्धि तथा औषधदान और मार्ग शुद्धि करके सब दिशाओं में प्रशंसा विस्तारें ॥८॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यैः कथं वर्त्तित्वा किं प्राप्य किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यथा वेधा ऋतस्य पथि श्रियेऽपायि देवासो मनांस्यक्रन् वचोभिर्महो नाम दृशये वपुश्च दधानो वेन्यः सन् व्यावस्तथा यूयमपि प्रयतध्वम् ॥८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ऋतस्य) सत्यस्य (पथि) मार्गे (वेधाः) मेधावी (अपायि) पाति (श्रिये) (मनांसि) (देवासः) विद्वांसः (अक्रन्) कुर्वन्ति (दधानः) (नाम) प्रख्यातिम् (महः) कीर्त्तियोगान्महत् (वचोभिः) वचनैः (वपुः) सुरूपं शरीरम्। वपुरिति रूपनाम। (निघं०३.७) (दृशये) दर्शनाय (वेन्यः) कमनीयः (वि) (आवः) रक्षति ॥८॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैः सर्वदा धर्मपथि गत्वा धनोन्नतये मनांसि निश्चेतव्यानि तथा धनप्राप्तेन धनेनानाथपालनं विद्याधर्मवृद्धिमौषधदानं मार्गशुद्धिं च कृत्वा प्रशंसा सर्वासु दिक्षु प्रसारणीया ॥८॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी सदैव धर्ममार्गात राहून धनवृद्धी करण्यासाठी मनाचा निश्चय करावा व धनप्राप्ती करून त्याद्वारे अनाथांचे पालन, विद्या, धनप्राप्ती, औषध दान व मार्गशुद्धी करून सर्वत्र प्रशंसित व्हावे. ॥ ८ ॥