वांछित मन्त्र चुनें

इ॒दं त्यत्पात्र॑मिन्द्र॒पान॒मिन्द्र॑स्य प्रि॒यम॒मृत॑मपायि। मत्स॒द्यथा॑ सौमन॒साय॑ दे॒वं व्य१॒॑स्मद्द्वेषो॑ यु॒यव॒द्व्यंहः॑ ॥१६॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

idaṁ tyat pātram indrapānam indrasya priyam amṛtam apāyi | matsad yathā saumanasāya devaṁ vy asmad dveṣo yuyavad vy aṁhaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इ॒दम्। त्यत्। पात्र॑म्। इ॒न्द्र॒ऽपान॑म्। इन्द्र॑स्य। प्रि॒यम्। अ॒मृत॑म्। अ॒पा॒यि॒। मत्स॑त्। यथा॑। सौ॒म॒न॒साय॑। दे॒वम्। वि। अ॒स्मत्। द्वेषः॑। यु॒यव॑त्। वि। अंहः॑ ॥१६॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:44» मन्त्र:16 | अष्टक:4» अध्याय:7» वर्ग:19» मन्त्र:1 | मण्डल:6» अनुवाक:4» मन्त्र:16


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! आप (सौमनसाय) अच्छे मन के होने के लिये (यथा) जैसे (इदम्) इस (त्यत्) उस (इन्द्रपानम्) ओषधियों के रस वा ऐश्वर्य्य के पान वा रक्षण को (इन्द्रस्य) इन्द्रियों के स्वामी जीव के (प्रियम्) प्रीतिकारक (अमृतम्) अच्छे प्रकार स्वादिष्ठ (पात्रम्) जिससे पान करता वा रक्षा करता है उसको (अपायि) पीता है और जिससे (मत्सत्) आनन्दित होता है तथा (देवम्) श्रेष्ठगुणकर्मयुक्त वस्तु का पान करता है और (अस्मत्) हम लोगों से (द्वेषः) द्वेष आदि से युक्त कर्म्म वा शत्रु को (वि, युयवत्) वियुक्त करता है और हम लोगों से (अंहः) पापाचरण को (वि) पृथक् करता है, वैसा आचरण करो ॥१६॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जिससे मन में प्रमाद और द्वेष न होवे, उसी का पान करना चाहिये और जैसे अपने आत्मा की सब रक्षा करते हैं, वैसे अन्य सबों की रक्षा करें ॥१६॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे विद्वँस्त्वं सौमनसाय कश्चिद्यथेदं त्यदिन्द्रपानमिन्द्रस्य प्रियममृतं पात्रमपायि येन मत्सद्देवमपाय्यस्मद्द्वेषो वि युयवदस्मदंहो वि युयवत्तथाऽऽचर ॥१६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इदम्) (त्यत्) तत् (पात्रम्) पिबति पाति वा येन (इन्द्रपानम्) इन्द्रस्यौषधिरसस्यैश्वर्यस्य वा पानं रक्षणं वा (इन्द्रस्य) इन्द्रियस्वामिनो जीवस्य (प्रियम्) प्रीतिकरम् (अमृतम्) सुस्वादिष्ठम् (अपायि) पिबति (मत्सत्) आनन्दति (यथा) (सौमनसाय) सुमनसो भवाय (देवम्) दिव्यगुणकर्म (वि) (अस्मत्) (द्वेषः) द्वेषादियुक्तं कर्म शत्रुं वा (युयवत्) वियोजयति (वि) (अंहः) पापाचरणम् ॥१६॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! येन मनसि प्रमादो द्वेषश्च न स्यात्तदेव पातव्यम्। यथा स्वात्मानं सर्वे रक्षन्ति तथैवाऽन्यान्त्सर्वान् रक्षन्तु ॥१६॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! ज्या पदार्थामुळे मनात प्रमाद व द्वेष उत्पन्न होता कामा नये त्याचेच प्राशन केले पाहिजे व जसे आपल्या आत्म्याचे सर्वजण रक्षण करतात तसे इतरांचेही केले पाहिजे. ॥ १६ ॥