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अ॒स्य मदे॑ पु॒रु वर्पां॑सि वि॒द्वानिन्द्रो॑ वृ॒त्राण्य॑प्र॒ती ज॑घान। तमु॒ प्र हो॑षि॒ मधु॑मन्तमस्मै॒ सोमं॑ वी॒राय॑ शि॒प्रिणे॒ पिब॑ध्यै ॥१४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

asya made puru varpāṁsi vidvān indro vṛtrāṇy apratī jaghāna | tam u pra hoṣi madhumantam asmai somaṁ vīrāya śipriṇe pibadhyai ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒स्य। मदे॑। पु॒रु। वर्पां॑सि। वि॒द्वान्। इन्द्रः॑। वृ॒त्राणि॑। अ॒प्र॒ति। ज॒घा॒न॒। तम्। ऊँ॒ इति॑। प्र। हो॒षि॒। मधु॑ऽमन्तम्। अ॒स्मै॒। सोम॑म्। वी॒राय॑। शि॒प्रिणे॑। पिब॑ध्यै ॥१४॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:44» मन्त्र:14 | अष्टक:4» अध्याय:7» वर्ग:18» मन्त्र:4 | मण्डल:6» अनुवाक:4» मन्त्र:14


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्य क्या करे, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो (विद्वान्) विद्यायुक्त, जैसे (इन्द्रः) सूर्य्य (वृत्राणि) मेघों का (जघान) नाश करता है, वैसे (अस्य) इस ओषधियों के समूह के (मदे) आनन्दकारक रस में (अप्रती) नहीं विश्वास किये गये (पुरु) बहुत (वर्पांसि) सुन्दर रूपों का निर्म्माण करके स्वीकार करे (तम्) उसके प्रति (उ) भी (मधुमन्तम्) मधुर आदि गुणों से युक्त द्रव्य के साथ (सोमम्) बड़ी ओषधियों के रस को (अस्मै) इस (शिप्रिणे) उत्तम ठुड्ढी और नासिकावाले (वीराय) भयरहित जन के लिये (पिबध्यै) पीने को आप (प्र, होषि) देते हो, इससे सत्कार करने योग्य हो ॥१४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो सूर्य्य के सदृश न्याय और विजय के प्रकाशक, युक्त आहार और विहारवाले और महौषधियों के रस को पीनेवाले हैं, वे अनेक प्रकार के पदार्थों को प्राप्त होकर इस जगत् में आनन्द करते हैं ॥१४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्याः किं कुर्य्युरित्याह ॥

अन्वय:

यो विद्वान् यथेन्द्रः सूर्यो वृत्राणि जघान तथाऽस्य मदेऽप्रती पुरु वर्पांसि निर्माय स्वीकरोतु तमु मधुमन्तं सोममस्मै शिप्रिणे वीराय पिबध्यै त्वं प्र होषि तस्मात् सत्कर्तव्योऽसि ॥१४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्य) ओषधिगणस्य (महे) आनन्दकरे रसे (पुरु) बहूनि (वर्पांसि) सुन्दराणि रूपाणि (विद्वान्) (इन्द्रः) सूर्य्यः (वृत्राणि) मेघान् इव (अप्रती) अप्रतीतानि। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (जघान) हन्ति (तम्) (उ) (प्र) (होषि) जुहोषि (मधुमन्तम्) मधुरादिगुणयुक्तद्रव्यसहितम् (अस्मै) (सोमम्) महौषधिरसम् (वीराय) निर्भयाय (शिप्रिणे) उत्तमहनुनासिकाय (पिबध्यै) पातुम् ॥१४॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये सूर्यवन्न्यायविजयप्रकाशका युक्ताहारविहारा महौषधिरसस्य पातारः सन्ति ते विविधरूपान् पदार्थान् प्राप्याऽस्मिञ्जगत्यानन्दन्ति ॥१४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंंंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे सूर्याप्रमाणे न्याय व विजय प्राप्त करणारे, युक्त आहार-विहार करणारे तसेच महौषधीचा रस प्राशन करणारे असतात त्यांना अनेक प्रकारचे पदार्थ प्राप्त होतात व या जगात ते आनंदाने राहतात. ॥ १४ ॥