यस्य॒ त्यच्छम्ब॑रं॒ मदे॒ दिवो॑दासाय र॒न्धयः॑। अ॒यं स सोम॑ इन्द्र ते सु॒तः पिब॑ ॥१॥
yasya tyac chambaram made divodāsāya randhayaḥ | ayaṁ sa soma indra te sutaḥ piba ||
यस्य॑। त्यत्। शम्ब॑रम्। मदे॑। दिवः॑ऽदासाय। र॒न्धयः॑। अ॒यम्। सः। सोमः॑। इ॒न्द्र॒। ते॒। सु॒तः। पिब॑ ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब चार ऋचावाले तैंतालीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में मनुष्य क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथ मनुष्याः किं कुर्य्युरित्याह ॥
हे इन्द्र ! सोऽयं सोमस्ते सुतोऽस्ति तं त्वं पिब। शम्बरं सूर्य्य इव मदे दिवोदासाय दुःखप्रदं दुष्टं रन्धयः। यस्य कुकर्मानुष्ठान इच्छा भवेत् त्यत् तं रन्धयः ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात इंद्र, सोम व विद्वान यांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.