अहे॑ळमान॒ उप॑ याहि य॒ज्ञं तुभ्यं॑ पवन्त॒ इन्द॑वः सु॒तासः॑। गावो॒ न व॑ज्रि॒न्त्स्वमोको॒ अच्छेन्द्रा ग॑हि प्रथ॒मो य॒ज्ञिया॑नाम् ॥१॥
aheḻamāna upa yāhi yajñaṁ tubhyam pavanta indavaḥ sutāsaḥ | gāvo na vajrin svam oko acchendrā gahi prathamo yajñiyānām ||
अहे॑ळमानः। उप॑। या॒हि॒। य॒ज्ञम्। तुभ्य॑म्। प॒व॒न्ते॒। इन्द॑वः। सु॒तासः॑। गावः॑। न। वा॒ज्रि॒न्। स्वम्। ओकः॑। अच्छ॑। इन्द्र॑। आ। ग॒हि॒। प्र॒थ॒मः। य॒ज्ञिया॑नाम् ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब पाँच ऋचावाले एकतालीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में राजा को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथ राज्ञा किं कर्त्तव्यमित्याह ॥
हे वज्रिन्निन्द्र ! यज्ञियानां प्रथमोऽहेळमानो यं यज्ञं तुभ्यं सुतास इन्दवः पवन्ते तमुप याहि गावो न स्वमाकोऽच्छागहि ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात इंद्र, राजा, सोमरसाचे गुणवर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर पूर्व सूक्तार्थाची संगती जाणावी.