म॒न्द्रस्य॑ क॒वेर्दि॒व्यस्य॒ वह्ने॒र्विप्र॑मन्मनो वच॒नस्य॒ मध्वः॑। अपा॑ न॒स्तस्य॑ सच॒नस्य॑ दे॒वेषो॑ युवस्व गृण॒ते गोअ॑ग्राः ॥१॥
mandrasya kaver divyasya vahner vipramanmano vacanasya madhvaḥ | apā nas tasya sacanasya deveṣo yuvasva gṛṇate goagrāḥ ||
म॒न्द्रस्य॑। क॒वेः। दि॒व्यस्य॑। वह्नेः॑। विप्र॑ऽमन्मनः। व॒च॒नस्य॑। मध्वः॑। अपाः॑। नः॒। तस्य॑। स॒च॒नस्य॑। दे॒व॒। इषः॑। यु॒व॒स्व॒। गृ॒ण॒ते। गोऽअ॑ग्राः ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब पाँच ऋचावाले उनचालीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में विद्वान् को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथ विदुषा किं कर्त्तव्यमित्याह ॥
हे देव ! त्वं वह्नेः कवेर्दिव्यस्य मन्द्रस्य विप्रमन्मनो मध्वो वचनस्य व्यवहारमपास्तस्य सचनस्य गृणते गोअग्रा इषश्च नो युवस्व ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात इंद्र, विद्वान, सूर्य व राजा यांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.