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ए॒वा ज॑ज्ञा॒नं सह॑से॒ असा॑मि वावृधा॒नं राध॑से च श्रु॒ताय॑। म॒हामु॒ग्रमव॑से विप्र नू॒नमा वि॑वासेम वृत्र॒तूर्ये॑षु ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

evā jajñānaṁ sahase asāmi vāvṛdhānaṁ rādhase ca śrutāya | mahām ugram avase vipra nūnam ā vivāsema vṛtratūryeṣu ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ए॒व। ज॒ज्ञा॒नम्। सह॑से। असा॑मि। व॒वृ॒धा॒नम्। राध॑से। च॒। श्रु॒ताय॑। म॒हाम्। उ॒ग्रम्। अव॑से। वि॒प्र॒। नू॒नम्। आ। वि॒वा॒से॒म॒। वृ॒त्र॒ऽतूर्ये॑षु ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:38» मन्त्र:5 | अष्टक:4» अध्याय:7» वर्ग:10» मन्त्र:5 | मण्डल:6» अनुवाक:3» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (विप्र) बुद्धियुक्त (असामि) उपमारहित को (सहसे) बलके लिये (जज्ञानम्) विद्या और विनयों में प्रकट हुए को (राधसे) असंख्य धनयुक्त के लिये (श्रुताय) सम्पूर्ण विद्याओं का किया श्रवण जिसने उसके लिये (च) भी (वावृधानम्) बढ़ते हुए को (वृत्रतूर्येषु) शत्रुओं में हिंसा करने योग्य संग्रामों में (अवसे) रक्षण आदि के लिये (महाम्) बड़े (उग्रम्) तेजस्वी को हम लोग (नूनम्) निश्चित (आ) सब प्रकार से (विवासेम) नित्य सेवा करें, उस (एवा) ही की आप भी सेवा करो ॥५॥
भावार्थभाषाः - जब मनुष्य सम्पूर्ण श्रेष्ठ गुण, कर्म्म और स्वभावों में वर्त्तमान शूरवीर विद्वान् की सेवा कर और विद्या को ग्रहण करके बल आदि को बढ़ावें तो वे कौन सा उत्तम कार्य्य न सिद्ध कर सकें ॥५॥ इस सूक्त में इन्द्र, विद्वान्, उत्तम बुद्धि और वाणी के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्वसूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह अड़तीसवाँ सूक्त और दशवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे विप्र ! असामि सहसे जज्ञानं राधसे श्रुताय च वावृधानं वृत्रतूर्येष्ववसे महामुग्रं वयं नूनमाऽऽविवासेम तमेवा त्वमपि सेवस्व ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (एवा) निश्चये। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (जज्ञानम्) विद्याविनयेषु जायमानम् (सहसे) बलाय (असामि) अतुलम् (वावृधानन्) वर्धमानम् (राधसे) असंख्यधनाय (च) (श्रुताय) अखिलविद्यानां कृतश्रवणाय (महाम्) महान्तम् (उग्रम्) तेजस्विनम् (अवसे) रक्षणाद्याय (विप्र) मेधाविन् (नूनम्) निश्चितम् (आ) समन्तात् (विवासेम) नित्यं परिचरेम (वृत्रतूर्येषु) शत्रुहिंसनीयेषु सङ्ग्रामेषु ॥५॥
भावार्थभाषाः - यदा मनुष्याः सर्वेषु शुभगुणकर्मस्वभावेषु प्रतिष्ठितं शूरवीरं विद्वांसं संसेव्य विद्यां गृहीत्वा बलादिकं वर्धेयुस्तर्हि ते किमुत्तमं कार्य्यं न साध्नुयुरिति ॥५॥ अत्रेन्द्रविद्वदुत्तमप्रज्ञावाग्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्यष्टत्रिंशत्तमं सूक्तं दशमो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जेव्हा माणसे संपूर्ण श्रेष्ठ गुण, कर्म, स्वभावयुक्त बनून शूरवीर विद्वानाची सेवा करून विद्या ग्रहण करून बल इत्यादी वाढवितात तेव्हा ती कोणते उत्तम कार्य करू शकत नाहीत? ॥ ५ ॥