तं वो॑ धि॒या प॑र॒मया॑ पुरा॒जाम॒जर॒मिन्द्र॑म॒भ्य॑नूष्य॒र्कैः। ब्रह्मा॑ च॒ गिरो॑ दधि॒रे सम॑स्मिन्म॒हांश्च॒ स्तोमो॒ अधि॑ वर्ध॒दिन्द्रे॑ ॥३॥
taṁ vo dhiyā paramayā purājām ajaram indram abhy anūṣy arkaiḥ | brahmā ca giro dadhire sam asmin mahām̐ś ca stomo adhi vardhad indre ||
तम्। वः॒। धि॒या। प॒र॒मया॑। पु॒रा॒ऽजाम्। अ॒जर॑म्। इन्द्र॑म्। अ॒भि। अ॒नू॒षि॒। अ॒र्कैः। ब्रह्म॑। च॒। गिरः॑। द॒धि॒रे। सम्। अ॒स्मि॒न्। म॒हान्। च॒। स्तोमः॑। अधि॑। व॒र्ध॒त्। इन्द्रे॑ ॥३॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
हे विद्वांसो ! यथा यूयं ब्रह्मा वः परमया धिया तं पुराजामजरमिन्द्रञ्च प्रशंसत तथाऽर्कैरहमेनमभ्यनूषि। यथाऽस्मिन्निन्द्रे च महाँ स्तोमोऽधि वर्धद्यथा च भवन्तो विदुषां य गिरः संदधिरे तथा वयमनुष्ठेयम् ॥३॥