अपा॑दि॒त उदु॑ नश्चि॒त्रत॑मो म॒हीं भ॑र्षद्द्यु॒मती॒मिन्द्र॑हूतिम्। पन्य॑सीं धी॒तिं दैव्य॑स्य॒ याम॒ञ्जन॑स्य रा॒तिं व॑नते सु॒दानुः॑ ॥१॥
apād ita ud u naś citratamo mahīm bharṣad dyumatīm indrahūtim | panyasīṁ dhītiṁ daivyasya yāmañ janasya rātiṁ vanate sudānuḥ ||
अपा॑त्। इ॒तः। उत्। ऊँ॒ इति॑। नः॒। चि॒त्रऽत॑मः। म॒हीम्। भ॒र्ष॒त्। द्यु॒ऽमती॑म्। इन्द्र॑ऽहूतिम्। पन्य॑सीम्। धी॒तिम्। दैव्य॑स्य। याम॑न्। जन॑स्य। रा॒तिम्। व॒न॒ते॒। सु॒ऽदानुः॑ ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब पाँच ऋचावाले अड़तीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में मनुष्यों को कैसे विद्वान् की सेवा करनी चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथ मनुष्यैः कीदृशो विद्वान्त्सेवनीय इत्याह ॥
योऽपादितश्चित्रतमस्सुदानुर्नो द्युमतीमिन्द्रहूतिं पन्यसीं दैव्यस्य जनस्य धीतिं महीं यामन् रातिमुद्भर्षदु वनते स विद्वन्मङ्गलकारी भवति ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात इंद्र, विद्वान, उत्तम बुद्धी व वाणीचे गुणवर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.