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अस्मा॑ ए॒तन्मह्यां॑ङ्गू॒षम॑स्मा॒ इन्द्रा॑य स्तो॒त्रं म॒तिभि॑रवाचि। अस॒द्यथा॑ मह॒ति वृ॑त्र॒तूर्य॒ इन्द्रो॑ वि॒श्वायु॑रवि॒ता वृ॒धश्च॑ ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

asmā etan mahy āṅgūṣam asmā indrāya stotram matibhir avāci | asad yathā mahati vṛtratūrya indro viśvāyur avitā vṛdhaś ca ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अस्मै॑। ए॒तत्। महि॑। आ॒ङ्गू॒षम्। अ॒स्मै॒। इन्द्रा॑य। स्तो॒त्रम्। म॒तिऽभिः॑। अ॒वा॒चि॒। अस॑त्। यथा॑। म॒ह॒ति। वृ॒त्र॒ऽतूर्ये॑। इन्द्रः॑। वि॒श्वऽआ॑युः। अ॒वि॒ता। वृ॒धः॒। च॒ ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:34» मन्त्र:5 | अष्टक:4» अध्याय:7» वर्ग:6» मन्त्र:5 | मण्डल:6» अनुवाक:3» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वानों को कैसा वर्त्ताव करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (यथा) जैसे (मतिभिः) विचारशील मनुष्यों से (अस्मै) इस उपदेशक के लिये (एतत्) यह (महि) बड़ा (आङ्गूषम्) प्राप्त होने योग्य (स्तोत्रम्) स्तोत्र (अवाचि) कहा जाता है और जैसे (अस्मै) इस (इन्द्राय) ऐश्वर्य्य के करनेवाले राजा के लिये यह बड़ा प्राप्त होने योग्य स्तोत्र कहा जाता है और जैसे (इन्द्रः) शत्रुओं का नाश करनेवाला योद्धा (महति) बड़े (वृत्रतूर्ये) सङ्ग्राम में (वृधः) बढ़ाने और (अविता) रक्षा करनेवाला (विश्वायुः च) और पूर्ण अवस्थायुक्त (असत्) होवे, वैसे आप लोगों को भी करना चाहिये ॥५॥
भावार्थभाषाः - जो अविद्वान् हों, वे विद्वानों के अनुकरण से अपना वर्त्ताव उत्तम करें ॥५॥ इस सूक्त में इन्द्र, राजा और प्रजा के गुणवर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह चौंतीसवाँ सूक्त और छठा वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वद्भिः कथं वर्त्तितव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यथा मतिभिरस्मा उपदेशकायैतन्मह्याङ्गूषं स्तोत्रमवाचि यथाऽस्मा इन्द्रायैतन्मह्याङ्गूषं स्तोत्रमवाचि यथेन्द्रो महति वृत्रतूर्ये वृधोऽविता विश्वायुश्चासत्तथा युष्माभिरप्यनुष्ठेयम् ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्मै) (एतत्) (महि) महत् (आङ्गूषम्) प्राप्तव्यम् (अस्मै) (इन्द्राय) ऐश्वर्यकराय राज्ञे (स्तोत्रम्) स्तुवन्ति येन तत् (मतिभिः) मननशीलैर्मनुष्यैः (अवाचि) उच्यते (असत्) भवेत् (यथा) (महति) (वृत्रतूर्ये) सङ्ग्रामे (इन्द्रः) शत्रूणां विदारको योद्धा (विश्वायुः) पूर्णायुः (अविता) रक्षकः (वृधः) वर्धकः (च) ॥५॥
भावार्थभाषाः - येऽविद्वांसः स्युस्ते विद्वदनुकरणेन स्वकीयवर्त्तमानमुत्तमं कुर्य्युरिति ॥५॥ अत्रेन्द्रराजप्रजागुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति चतुस्त्रिंशत्तमं सूक्तं षष्ठो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे अविद्वान असतील त्यांनी विद्वानांचे अनुकरण करून आपले वर्तन उत्तम ठेवावे. ॥ ५ ॥