अपू॑र्व्या पुरु॒तमा॑न्यस्मै म॒हे वी॒राय॑ त॒वसे॑ तु॒राय॑। वि॒र॒प्शिने॑ व॒ज्रिणे॒ शंत॑मानि॒ वचां॑स्या॒सा स्थवि॑राय तक्षम् ॥१॥
apūrvyā purutamāny asmai mahe vīrāya tavase turāya | virapśine vajriṇe śaṁtamāni vacāṁsy āsā sthavirāya takṣam ||
अपू॑र्व्या। पु॒रु॒ऽतमा॑नि। अ॒स्मै॒। म॒हे। वी॒राय॑। त॒वसे॑। तु॒राय॑। वि॒र॒प्शिने॑। व॒ज्रिणे॑। शम्ऽत॑मानि। वचां॑सि। आ॒सा। स्थवि॑राय। त॒क्ष॒म् ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब पाँच ऋचावाले बत्तीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में विद्वान् जन क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथ विद्वांसः किं कुर्युरित्याह ॥
हे मनुष्या ! यथाऽहमासाऽस्मै महे वीराय तवसे तुराय विरप्शिने वज्रिणे स्थविरायाऽपूर्व्या पुरुतमानि शन्तमानि वचांसि तक्षं तथा यूयमप्यन्यानुपदिशत ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात इंद्र, विद्वान व राजाच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.