त्वं श॒तान्यव॒ शम्ब॑रस्य॒ पुरो॑ जघन्थाप्र॒तीनि॒ दस्योः॑। अशि॑क्षो॒ यत्र॒ शच्या॑ शचीवो॒ दिवो॑दासाय सुन्व॒ते सु॑तक्रे भ॒रद्वा॑जाय गृण॒ते वसू॑नि ॥४॥
tvaṁ śatāny ava śambarasya puro jaghanthāpratīni dasyoḥ | aśikṣo yatra śacyā śacīvo divodāsāya sunvate sutakre bharadvājāya gṛṇate vasūni ||
त्वम्। श॒तानि॑। अव॑। शम्ब॑रस्य। पुरः॑। ज॒घ॒न्थ॒। अ॒प्र॒तीनि॑। दस्योः॑। अशि॑क्षः। यत्र॑। शच्या॑। श॒ची॒ऽवः॒। दिवः॑ऽदासाय। सु॒न्व॒ते। सु॒त॒ऽक्रे॒। भ॒रत्ऽवा॑जाय। गृ॒ण॒ते। वसू॑नि ॥४॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर राजा क्या करे, इस विषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुना राजा किं कुर्यादित्याह ॥
हे शचीवः सुतक्र इन्द्र ! राजँस्त्वं यथा सूर्यः शम्बरस्य शतानि पुरोऽव जघन्थ तथा दस्योरप्रतीनि शतानि पुरो जघन्थ शच्यैतानशिक्षो यत्र दिवोदासाय सुन्वते गृणते भरद्वाजाय वसूनि दद्यास्तत्रैतेन विद्याप्रचारं कारय ॥४॥