अभू॒रेको॑ रयिपते रयी॒णामा हस्त॑योरधिथा इन्द्र कृ॒ष्टीः। वि तो॒के अ॒प्सु तन॑ये च॒ सूरेऽवो॑चन्त चर्ष॒णयो॒ विवा॑चः ॥१॥
abhūr eko rayipate rayīṇām ā hastayor adhithā indra kṛṣṭīḥ | vi toke apsu tanaye ca sūre vocanta carṣaṇayo vivācaḥ ||
अभूः॑। एकः॑। र॒यि॒ऽप॒ते॒। र॒यी॒णाम्। आ। हस्त॑योः। अ॒धि॒थाः॒। इ॒न्द्र॒। कृ॒ष्टीः। वि। तो॒के। अ॒प्ऽसु। तन॑ये। च॒। सूरे॑। अवो॑चन्त। च॒र्ष॒णयः॑। विवा॑चः ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब पाँच ऋचावाले इकतीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में ईश्वर कैसा है, इस विषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथेश्वरः कीदृशोऽस्तीत्याह ॥
हे रयीणां रयिपत इन्द्र ! त्वं ये विवाचश्चर्षणयोऽप्सु तोके तनये च सूरे च विद्या व्यवोचन्त ताः कृष्टीर्हस्तयोरामलकमिवाऽऽधिथा एकस्सन् प्रजापालकोऽभूः ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात इंद्र व राजा यांच्या कृत्याचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.