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अ॒द्या चि॒न्नू चि॒त्तदपो॑ न॒दीनां॒ यदा॑भ्यो॒ अर॑दो गा॒तुमि॑न्द्र। नि पर्व॑ता अद्म॒सदो॒ न से॑दु॒स्त्वया॑ दृ॒ळ्हानि॑ सुक्रतो॒ रजां॑सि ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

adyā cin nū cit tad apo nadīnāṁ yad ābhyo arado gātum indra | ni parvatā admasado na sedus tvayā dṛḻhāni sukrato rajāṁsi ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒द्य। चि॒त्। नु। चि॒त्। तत्। अपः॑। न॒दीना॑म्। यत्। आ॒भ्यः॒। अर॑दः। गा॒तुम्। इ॒न्द्र॒। नि। पर्व॑ताः। अ॒द्म॒ऽसदः॑। न। से॒दुः॒। त्वया॑। दृ॒ळ्हानि॑। सु॒क्र॒तो॒ इति॑ सुऽक्रतो। रजां॑सि ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:30» मन्त्र:3 | अष्टक:4» अध्याय:7» वर्ग:2» मन्त्र:3 | मण्डल:6» अनुवाक:3» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सुक्रतो) श्रेष्ठ कर्मों को उत्तम प्रकार जाननेवाले (इन्द्र) सूर्य के समान वर्त्तमान ! (चित्) जैसे सूर्य (गातुम्) भूमि का (अरदः) आकर्षण करता है तथा (नदीनाम्) नदियों के समीप से (अपः) जलों का आकर्षण करता है और (यत्) जो (आभ्यः) इन नदियों से खैंचता (तत्) वह (चित्) भी वर्षता है, वैसे (अद्याः) आज आप (नू) शीघ्र करिये और जैसे सूर्य से (रजांसि) लोकविशेष (दृळ्हानि) धारण किये गये, वैसे आज (अद्मसदः) उत्तम प्रकार खाने योग्य में स्थित होनेवाले (पर्वताः) मेघ (न) जैसे वैसे (त्वया) रक्षक वा स्वामी आपसे प्रजा और राजजन (नि, सेदुः) स्थित होते हैं ॥३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। हे राजन् !जैसे सूर्य सम्पूर्ण पदार्थों से आठ महीने रस धारण करके मेघमण्डल में स्थापित करके वर्षाओं में वर्षाके प्रजाओं को सुखी करता है, वैसे आप आठ मासों में प्रजाओं से कर लेकर वर्षाकाल में देवें ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे सुक्रतो इन्द्र ! चित् सूर्यो गातुमरदो नदीनां सकाशादपोऽरदो यदाभ्योऽरदस्तच्चिद्वर्षति तथाऽद्या त्वं नू विधेहि। यथा सूर्येण रजांसि दृळ्हानि धृतानि तथाऽद्याऽद्मसदः पर्वता न त्वया प्रजा राजजनाश्च निषेदुः ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अद्या) अत्र संहितायामिति दीर्घः। (चित्) इव (नू) सद्यः। अत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (चित्) अपि (तत्) तानि (अपः) जलानि (नदीनाम्) (यत्) (आभ्यः) नदीभ्यः (अरदः) विलिखत्याकर्षति (गातुम्) भूमिम् (इन्द्र) सूर्य इव वर्तमान (नि) (पर्वताः) मेघाः (अद्मसदः) येऽद्मस्वत्तव्येषु सीदन्ति (न) इव (सेदुः) सीदन्ति (त्वया) रक्षकेण पतिना सह (दृळ्हानि) धृतानि (सुक्रतो) सुष्ठुकर्मप्रज्ञ (रजांसि) लोकविशेषाणि ॥३॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। हे राजन् ! यथा सूर्योऽखिलेभ्यः पदार्थेभ्योऽष्टौ मासान् रसं धृत्वा मेघमण्डले संस्थाप्य वर्षासु वर्षयित्वा प्रजाः सुखयति तथा त्वमष्टसु मासेषु प्रजाभ्यः करं हृत्वा चातुर्मास्ये दद्याः ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. हे राजा ! जसा सूर्य संपूर्ण पदार्थांपासून आठ महिने रस धारण करून मेघमंडलात स्थापन करून पाऊस पाडतो व प्रजेला सुखी करतो तसे तू आठ महिने प्रजेकडून कर घेऊन चातुर्मासात (पावसाळ्यात) त्यांना मदत कर. ॥ ३ ॥