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अधा॑ मन्ये बृ॒हद॑सु॒र्य॑मस्य॒ यानि॑ दा॒धार॒ नकि॒रा मि॑नाति। दि॒वेदि॑वे॒ सूर्यो॑ दर्श॒तो भू॒द्वि सद्मा॑न्युर्वि॒या सु॒क्रतु॑र्धात् ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

adhā manye bṛhad asuryam asya yāni dādhāra nakir ā mināti | dive-dive sūryo darśato bhūd vi sadmāny urviyā sukratur dhāt ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अध॑। म॒न्ये॒। बृ॒हत्। अ॒सु॒र्य॑म्। अ॒स्य॒। यानि॑। दा॒धार॑। नकिः॑। आ। मि॒ना॒ति॒। दि॒वेऽदि॑वे। सूर्यः॑। द॒र्श॒तः। भू॒त्। वि। सद्मा॑नि। उ॒र्वि॒या। सु॒ऽक्रतुः॑। धा॒त् ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:30» मन्त्र:2 | अष्टक:4» अध्याय:7» वर्ग:2» मन्त्र:2 | मण्डल:6» अनुवाक:3» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह राजा कैसा होवे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजन् ! जैसे (दर्शतः) देखने वा पूछने योग्य (सुक्रतुः) शुभ कर्म करनेवाला (सूर्यः) सूर्य (दिवेदिवे) प्रतिदिन जो (अस्य) इसके (बृहत्) बड़े (असुर्यम्) मेघ के सम्बन्धी का और (यानि) जिन वायुदलों का (दाधार) धारण करता है और इसको (नकिः) नहीं (आ, मिनाति) नष्ट करता है और (उर्विया) पृथिवी के साथ (सद्मानि) स्थानों को (धात्) धारण करता है, वैसे आप (वि, भूत्) होते हैं (अधा) इसके अनन्तर ऐसे हुए आपको राजा मैं (मन्ये) मानता हूँ ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य प्रतिदिन मेघ को धारण करके वर्षा के पृथिवी और पृथिवीस्थ पदार्थों का नाश नहीं करके धारण करता है, वैसे ही राज्य को धारण करके सुख को वर्षा के प्रजा के साथ न्यायकर्मों को राजा धारण करे ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स राजा कीदृशो भवेदित्याह ॥

अन्वय:

हे राजन् ! यथा दर्शतः सुक्रतुः सूर्यो दिवेदिवे यदस्य बृहदसुर्यं यानि च दाधारैनं नकिरा मिनाति। उर्विया सह सद्मानि धात् तथा भवान् वि भूत्। अधैवम्भूतं त्वां राजानमहं मन्ये ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अधा) आनन्तर्ये। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (मन्ये) (बृहत्) महत् (असुर्यम्) असुरस्य मेघस्येदम् (अस्य) (यानि) वायुदलानि (दाधार) दधाति (नकिः) न (आ) (मिनाति) हिनस्ति (दिवेदिवे) प्रतिदिनम् (सूर्यः) सविता (दर्शतः) द्रष्टव्यः प्रष्टव्यो वा (भूत्) भवति (वि) (सद्मानि) स्थानानि (उर्विया) पृथिव्या सह (सुक्रतुः) शोभनकर्मा (धात्) दधाति ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सविता प्रतिदिनं मेघं धृत्वा वर्षित्वा पृथिवीं तत्रस्थान् पदार्थांश्चाऽहिंसित्वा धरति तथैव राज्यं धृत्वा सुखं वर्षित्वा प्रजया सह न्यायकर्माणि राजा दधीत ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूर्य प्रत्येक दिवशी मेघांद्वारे वृष्टी करून पृथ्वी व पृथ्वीवरील पदार्थांचा नाश न करता त्यांना धारण करतो तसेच राज्य धारण करून सुखाची वृष्टी करून राजाने प्रजेबरोबर न्यायाने वागावे. ॥ २ ॥