भूय॒ इद्वा॑वृधे वी॒र्या॑यँ॒ एको॑ अजु॒र्यो द॑यते॒ वसू॑नि। प्र रि॑रिचे दि॒व इन्द्रः॑ पृथि॒व्या अ॒र्धमिद॑स्य॒ प्रति॒ रोद॑सी उ॒भे ॥१॥
bhūya id vāvṛdhe vīryāyam̐ eko ajuryo dayate vasūni | pra ririce diva indraḥ pṛthivyā ardham id asya prati rodasī ubhe ||
भूयः॑। इत्। व॒वृ॒धे॒। वी॒र्या॑य। एकः॑। अ॒जु॒र्यः। द॒य॒ते॒। वसू॑नि। प्र। रि॒रि॒चे॒। दि॒वः। इन्द्रः॑। पृ॒थि॒व्याः। अ॒र्धम्। इत्। अ॒स्य॒। प्रति॑। रोद॑सी॒ इति॑। उ॒भे इति॑ ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब पाँच ऋचावाले तीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में राजा कैसा होवे, इस विषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथ राजा कीदृशो भवेदित्याह ॥
हे मनुष्या ! यथेन्द्रो दिवः पृथिव्याः अर्द्धमुभे रोदसी प्रत्यर्द्धं च प्रकाशते सर्वेभ्यः प्र रिरिचेऽश्येदेवाऽऽकर्षणेन सर्वे लोका वर्त्तन्ते तदिद्यो राजा वीर्याय भूयो वावृध एकोऽजुर्यः सन् वसूनि दयते स एव वरो जायते ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात इंद्र, राजा, सूर्य व ईश्वराच्या गुणांचे वर्णन आल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.