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त्वं धुनि॑रिन्द्र॒ धुनि॑मतीर्ऋ॒णोर॒पः सी॒रा न स्रव॑न्तीः। प्र यत्स॑मु॒द्रमति॑ शूर॒ पर्षि॑ पा॒रया॑ तु॒र्वशं॒ यदुं॑ स्व॒स्ति ॥१२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvaṁ dhunir indra dhunimatīr ṛṇor apaḥ sīrā na sravantīḥ | pra yat samudram ati śūra parṣi pārayā turvaśaṁ yaduṁ svasti ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वम्। धुनिः॑। इ॒न्द्र॒। धुनि॑ऽमतीः। ऋ॒णोः। अ॒पः। सी॒राः। न। स्रव॑न्तीः। प्र। यत्। स॒मु॒द्रम्। अति॑। शू॒र॒। पर्षि॑। पा॒रय॑। तु॒र्वश॑म्। यदु॑म्। स्व॒स्ति ॥१२॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:20» मन्त्र:12 | अष्टक:4» अध्याय:6» वर्ग:10» मन्त्र:7 | मण्डल:6» अनुवाक:2» मन्त्र:12


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह क्या करे, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) सब के पालन करनेवाले (धुनिः) शत्रुओं के कम्पानेवाले (त्वम्) आप (धुनिमतीः) शब्द करती हुई प्रजायें (सीराः) नाडियाँ तथा (अपः) जल और (स्रवन्तीः) नदियाँ (समुद्रम्) समुद्र वा अन्तरिक्ष को (न) जैसे (स्वस्ति) सुख को (ऋणोः) प्रसिद्ध कीजिये और हे (शूर) वीर ! (यत्) जो आप (तुर्वशम्) शीघ्र वश को प्राप्त होनेवाले (यदुम्) यत्नशील मनुष्य का (प्र, अति पर्षि) प्रसिद्ध अत्यन्त पालन करते हो, वह आप हम लोगों को (पारया) दुःख से पार कीजिये ॥१२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे राजन् ! आप मङ्गल और सुख के देनेवाले शब्दों से युक्त और आनन्दित प्रजाओं को करें, जैसे नदियाँ समुद्र को प्राप्त होकर स्थिर होती हैं, वैसे प्रजायें आपको प्राप्त होकर निश्चल होवें, ऐसा करिये ॥१२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनाः स किं कुर्यादित्याह ॥

अन्वय:

हे इन्द्र ! धुनिस्त्वं धुनिमतीः सीरा अपः स्रवन्तीः समुद्रं न स्वस्त्यृणोः। हे शूर ! यद् यस्त्वं तुर्वशं यदुं प्रति पर्षि स त्वमस्मान् पारया ॥१२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वम्) (धुनिः) शत्रूणां कम्पकः (इन्द्र) सर्वपालक (धुनिमतीः) शब्दायमानाः प्रजाः (ऋणोः) प्रसाध्नुयाः (अपः) जलानि (सीराः) नाड्यः (न) इव (स्रवन्तीः) नद्यः (प्र) (यत्) यः (समुद्रम्) सागरमन्तरिक्षं वा (अति) (शूर) (पर्षि) पालयसि (पारया) दुःखात् परं देशं गमय (तुर्वशम्) सद्यो वशगमनम् (यदुम्) यत्नशीलं मनुष्यम् (स्वस्ति) सुखम् ॥१२॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। हे राजंस्त्वं मङ्गलसुखशब्दयुक्ता आनन्दिताः प्रजाः कुर्या यथा नद्यः समुद्रं प्राप्य स्थिरा भवन्ति तथा प्रजा भवन्तं प्राप्य निश्चलाः स्युरेवं कुर्याः ॥१२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे राजा ! तू कल्याणकारक, सुखदायक शब्दांनी युक्त होऊन प्रजेला आनंदित कर व जशा नद्या समुद्राला मिळतात व स्थिर होतात तशी प्रजा तुला प्राप्त करून निश्चल राहावी असा प्रयत्न कर. ॥ १२ ॥