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स॒मिधा॒ यस्त॒ आहु॑तिं॒ निशि॑तिं॒ मर्त्यो॒ नश॑त्। व॒याव॑न्तं॒ स पु॑ष्यति॒ क्षय॑मग्ने श॒तायु॑षम् ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

samidhā yas ta āhutiṁ niśitim martyo naśat | vayāvantaṁ sa puṣyati kṣayam agne śatāyuṣam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स॒म्ऽइधा॑। यः। ते॒। आऽहु॑तिम्। निऽशि॑तिम्। मर्त्यः॑। नश॑त्। व॒याऽव॑न्तम्। सः। पु॒ष्य॒ति॒। क्षय॑म्। अ॒ग्ने॒। श॒तऽआ॑युषम् ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:2» मन्त्र:5 | अष्टक:4» अध्याय:5» वर्ग:1» मन्त्र:5 | मण्डल:6» अनुवाक:1» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) विद्वन् जन ! (यः) जो (मर्त्यः) मनुष्य (समिधा) अग्नि को प्रदीप्त करनेवाले वस्तु से (ते) आपके लिये (निशितिम्) तीक्ष्ण अतितीव्र (आहुतिम्) आहुति को (नशत्) व्याप्त होता है (सः) वह (वयावन्तम्) बहुत पदार्थों से युक्त (क्षयम्) और गृह (शतायुषम्) सौ वर्ष पर्य्यन्त जीवनेवाले को प्राप्त होकर (पुष्यति) पुष्ट होता है ॥५॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य विद्वानों की सेवा से उत्तम गुण, कर्म्म और स्वभाववालों को प्राप्त होते हैं, वे सुख की वृद्धि और अतिकाल पर्य्यन्त जीवन से युक्त और अच्छे गृहोंवाले होकर शरीर और आत्मा से पुष्ट होते हैं ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे अग्ने ! यो मर्त्यः समिधा ते निशितिमाहुतिं नशत् स वयावन्तं क्षयं शतायुषं प्राप्य पुष्यति ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (समिधा) प्रदीपिकया (यः) (ते) तुभ्यम् (आहुतिम्) (निशितिम्) तीक्ष्णाम् (मर्त्यः) मनुष्यः (नशत्) व्याप्नोति। नशदिति व्याप्तिकर्म्मा। (निघं०२.१८) (वयावन्तम्) बहुपदार्थयुक्तम् (सः) (पुष्यति) (क्षयम्) गृहम् (अग्ने) विद्वन् (शतायुषम्) शतवर्षजीविनम् ॥५॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या विद्वत्सेवया शुभगुणकर्मस्वभावान् प्राप्नुवन्ति ते वृद्धसुखा चिरञ्जीविनः सुन्दरगृहाश्च भूत्वा शरीरात्मभ्यां पुष्टा जायन्ते ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे विद्वानांची सेवा करून उत्तम स्वभावाची बनतात ती सुखाची वृद्धी करून दीर्घजीवी होतात व चांगली घरे प्राप्त करून शरीर व आत्म्याने पुष्ट होतात. ॥ ५ ॥