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अच्छा॑ नो मित्रमहो देव दे॒वानग्ने॒ वोचः॑ सुम॒तिं रोद॑स्योः। वी॒हि स्व॒स्तिं सु॑क्षि॒तिं दि॒वो नॄन्द्वि॒षो अंहां॑सि दुरि॒ता त॑रेम॒ ता त॑रेम॒ तवाव॑सा तरेम ॥११॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

acchā no mitramaho deva devān agne vocaḥ sumatiṁ rodasyoḥ | vīhi svastiṁ sukṣitiṁ divo nṝn dviṣo aṁhāṁsi duritā tarema tā tarema tavāvasā tarema ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अच्छ॑। नः॒। मि॒त्र॒ऽम॒हः॒। दे॒व॒। दे॒वान्। अग्ने॑। वोचः॑। सु॒ऽम॒तिम्। रोद॑स्योः। वी॒हि। स्व॒स्तिम्। सु॒ऽक्षि॒तिम्। दि॒वः। नॄन्। द्वि॒षः। अंहां॑सि। दुः॒ऽइ॒ता। त॒रे॒म॒। ता। त॒रे॒म॒। तव॑। अव॑सा। त॒रे॒म॒ ॥११॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:2» मन्त्र:11 | अष्टक:4» अध्याय:5» वर्ग:2» मन्त्र:6 | मण्डल:6» अनुवाक:1» मन्त्र:11


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब विद्वानों के विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (मित्रमहः) मित्र आदर करने योग्य जिसके ऐसे (देव) दान करनेवाले (अग्ने) अग्नि के सदृश वर्त्तमान जन ! आप (नः) हम लोगों के (देवान्) विद्वान् दाता जनों को (रोदस्योः) अन्तरिक्ष और पृथिवी के मध्य में (सुमतिम्) श्रेष्ठ बुद्धि का (अच्छा) उत्तम प्रकार (वोचः) उपदेश करें जिस कारण से (स्वस्तिम्) सुख वा शान्ति तथा (सुक्षितिम्) उत्तम पृथिवी वा उत्तम निवास को (दिवः) कामना करते हुए और (नॄन्) नायक जनों को (वीहि) व्याप्त हूजिये और (द्विषः) द्वेष करनेवालों का त्याग करो तथा (दुरिता) दुःख के प्राप्त करानेवाले (अंहासि) पापों के हम लोग (तरेम) पार होवें (ता) उनको (तरेम) फिर भी पार हों और (तव) आपके (अवसा) रक्षण आदि से (तरेम) पार होवें ॥११॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि विद्वानों को मिल कर और बल को प्राप्त होकर शत्रुओं को जीत कर दुःखरूप सागर से पार हों ॥११॥ इस सूक्त में अग्नि और विद्वान् के गुणवर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह द्वितीय सूक्त और द्वितीय वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विद्वद्विषयमाह ॥

अन्वय:

हे मित्रमहो देवाग्ने ! त्वं नो देवान् रोदस्योः सुमतिमच्छा वोचो येन स्वस्तिं सुक्षितिं दिवो नॄन् वीहि द्विषो जहि दुरितांऽहांसि वयं तरेम वा तरेम तवावसा तरेम ॥११॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अच्छा) सम्यक्। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (नः) अस्माकम् (मित्रमहः) मित्रं सखा महः पूजनीयो यस्य तत्सम्बुद्धौ (देव) दातः (देवान्) विदुषो दातॄन् (अग्ने) अग्निरिव वर्त्तमान (वोचः) उपदिशेः (सुमतिम्) श्रेष्ठां प्रज्ञाम् (रोदस्योः) द्यावापृथिव्योर्मध्ये (वीहि) व्याप्नुहि (स्वस्तिम्) सुखं शान्तिं वा (सुक्षितिम्) शोभनां पृथिवीं सुनिवासं वा (दिवः) कामयमानान् (नॄन्) नायकान् (द्विषः) द्वेष्टॄन् (अंहांसि) पापानि (दुरिता) दुःखस्य प्रापकाणि (तरेम) उल्लङ्घयेम (ता) तानि (तरेम) (तव) (अवसा) रक्षणाद्येन (तरेम) ॥११॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्विदुषः सङ्गत्य बलं प्राप्य शत्रून् विजित्य दुःखसागरात् तरणीयमिति ॥११॥ अत्राग्निविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति द्वितीयं सूक्तं द्वितीयो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी विद्वानांच्या संगतीने बल प्राप्त करून शत्रूंना जिंकून दुःखरूपी सागर पार करावा. ॥ ११ ॥