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आ नो॑ भर॒ वृष॑णं॒ शुष्म॑मिन्द्र धन॒स्पृतं॑ शूशु॒वासं॑ सु॒दक्ष॑म्। येन॒ वंसा॑म॒ पृत॑नासु॒ शत्रू॒न्तवो॒तिभि॑रु॒त जा॒मीँरजा॑मीन् ॥८॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā no bhara vṛṣaṇaṁ śuṣmam indra dhanaspṛtaṁ śūśuvāṁsaṁ sudakṣam | yena vaṁsāma pṛtanāsu śatrūn tavotibhir uta jāmīm̐r ajāmīn ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। नः॒। भ॒र॒। वृष॑णम्। शुष्म॑म्। इ॒न्द्र॒। ध॒न॒ऽस्पृत॑म्। शू॒शु॒ऽवांस॑म्। सु॒ऽदक्ष॑म्। येन॑। वंसा॑म। पृत॑नासु। शत्रू॑न्। तव॑। ऊ॒तिऽभिः॑। उ॒त। जा॒मीन्। अजा॑मीन् ॥८॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:19» मन्त्र:8 | अष्टक:4» अध्याय:6» वर्ग:8» मन्त्र:3 | मण्डल:6» अनुवाक:2» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) दुष्टों के बलनाशक ! आप (नः) हम लोगों के लिये (वृषणम्) शत्रुओं के सामर्थ्य को रोकनेवाली (शुष्मम्) सेना और (धनस्पृतम्) धन को पूरण करते जिससे उस (शूशुवांसम्) शुभगुणव्यापिनी (सुदक्षम्) उत्तम बल की चतुराई को (आ) सब ओर से (भर) धारण करिये (येन) जिससे हम लोग (तव) आपके (ऊतिभिः) रक्षण आदिकों से (जामीन्) सम्बन्धी बन्धु आदिकों का (उत) और (अजामीन्) असम्बन्धी दुष्ट (शत्रून्) शत्रुओं का (पृतनासु) मनुष्यों की सेनाओं में (वंसाम) विभाग करें ॥८॥
भावार्थभाषाः - राजाओं को चाहिये कि ऐसा प्रयत्न करें जिससे मित्र और शत्रु पृथक्-पृथक् प्रतीत होवें और वैसी ही सेना रखनी चाहिये जिससे शत्रु नष्ट होवें ॥८॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे इन्द्र ! त्वं नो वृषणं शुष्मं धनस्पृतं शूशुवांसं सुदक्षमाऽऽभर। येन वयं तवोतिभिर्जामीनुताप्यजामीञ्छत्रून् पृतनासु वंसाम ॥८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) समन्तात् (नः) अस्मभ्यम् (भर) धर (वृषणम्) शत्रुसामर्थ्यप्रतिबन्धकम् (शुष्मम्) बलम् (इन्द्र) दुष्टबलविदारक (धनस्पृतम्) धनं स्पृणन्ति येन तम् (शूशुवांसम्) शुभगुणव्यापिनम् (सुदक्षम्) उत्तमबलचातुर्यम् (येन) (वंसाम) विभजेम (पृतनासु) मनुष्यसेनासु (शत्रून्) (तव) (ऊतिभिः) रक्षादिभिः (उत) (जामीन्) सम्बन्धिनो बन्ध्वादीन् (अजामीन्) असम्बन्धिनो दुष्टान् ॥८॥
भावार्थभाषाः - राजभिरेवं प्रयत्नो विधेयो येन मित्राणि शत्रवश्च विभक्ता भवेयुस्तथैवं बलं विधेयं येन शत्रवो विलीयेरन् ॥८॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - राजाने असा प्रयत्न करावा की, ज्यामुळे मित्र व शत्रू वेगवेगळे असावेत व अशी सेना बाळगावी की ज्यामुळे शत्रू नष्ट व्हावेत. ॥ ८ ॥