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स यो न मु॒हे न मिथू॒ जनो॒ भूत्सु॒मन्तु॑नामा॒ चुमु॑रिं॒ धुनिं॑ च। वृ॒णक्पिप्रुं॒ शम्ब॑रं॒ शुष्ण॒मिन्द्रः॑ पु॒रां च्यौ॒त्नाय॑ श॒यथा॑य॒ नू चि॑त् ॥८॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sa yo na muhe na mithū jano bhūt sumantunāmā cumuriṁ dhuniṁ ca | vṛṇak pipruṁ śambaraṁ śuṣṇam indraḥ purāṁ cyautnāya śayathāya nū cit ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः। यः। न। मु॒हे। न। मिथु॑। जनः॑। भूत्। सु॒मन्तु॑ऽनामा। चुमु॑रिम्। धुनि॑म्। च॒। वृ॒णक्। पिप्रु॑म्। शम्ब॑रम्। शुष्ण॑म्। इन्द्रः॑। पु॒राम्। च्यौ॒त्नाय॑। श॒यथा॑य। नु। चि॒त् ॥८॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:18» मन्त्र:8 | अष्टक:4» अध्याय:6» वर्ग:5» मन्त्र:3 | मण्डल:6» अनुवाक:2» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्य कैसा वर्त्ताव करें, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! जैसे (इन्द्रः) सूर्य्य (चुमुरिम्) भोजन करने (प्रिपुम्) व्याप्त होने (धुनिम्) शब्द करने (शुष्णम्) सुखाने और (शम्बरम्) सुख को स्वीकार करानेवाले मेघ को (पुराम्) पूर्ण धनों के (च्यौत्नाय) गमन और (शयथाय) शयन के लिये (नू) शीघ्र (वृणक्) काटता है, वैसे (च) और (यः) जो (सुमन्तुनामा) उत्तम प्रकार जानने योग्य नाम जिसका वह (जनः) मनुष्य (न) नहीं (मुहे) मोह को प्राप्त होता और (न) न (मिथू) परस्पर (भूत्) होता है (सः) वह (चित्) भी सत्कार करने योग्य है ॥८॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य्य मेघ का निर्म्माण करके और वर्षाय के =बरसा कर बद्ध नहीं होता है, वैसे ही मनुष्य धर्म्मयुक्त कार्य्यों को करके सज्जनों के साथ वर्त्ताव करके मोहित नहीं होते, किन्तु सुखी होते हैं ॥८॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्याः कथं वर्त्तेयुरित्याह ॥

अन्वय:

हे विद्वन् ! यथेन्द्रश्चुमुरिं पिप्रुं धुनिं शुष्णं शम्बरं मेघं पुरां च्यौत्नाय शयथाय नू वृणक् तथा च यः सुमन्तुनामा जनो न मुहे न मिथू भूत्स चित्सत्कर्त्तव्योऽस्ति ॥८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) (यः) (न) निषेधे (मुहे) मुग्धो भवति (न) (मिथू) परस्परम् (जनः) मनुष्यः (भूत्) भवति (सुमन्तुनामा) सुष्ठु मन्तु मन्तव्यं ज्ञातव्यं नाम यस्य (चुमुरिम्) अत्तारम् (धुनिम्) ध्वनितारम् (च) (वृणक्) छिनत्ति (पिप्रुम्) व्यापनशीलम् (शम्बरम्) शं सुखं वृणोति येन तं मेघम् (शुष्णम्) शोषकम् (इन्द्रः) सूर्य्यः (पुराम्) पूर्णानां धनानाम् (च्यौत्नाय) च्यवनाय गमनाय (शयथाय) शयनाय (नू) सद्यः (चित्) अपि ॥८॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्य्यो मेघं निर्माय वर्षयित्वा बद्धो न भवति तथैव मनुष्या धर्म्याणि कार्य्याणि कृत्वा सज्जनैः सह वर्त्तित्वा मोहिता न भवन्ति किन्तु सुखिनो भवन्ति ॥८॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूर्य मेघाद्वारे वृष्टी करून बद्ध होत नाही तशी जी माणसे धर्मयुक्त कार्य करून सज्जनांशी वागताना मोह ठेवत नाहीत ती सुखी होतात. ॥ ८ ॥