त्वं ह॒ नु त्यद॑दमयो॒ दस्यूँ॒रेकः॑ कृ॒ष्टीर॑वनो॒रार्या॑य। अस्ति॑ स्वि॒न्नु वी॒र्यं१॒॑ तत्त॑ इन्द्र॒ न स्वि॑दस्ति॒ तदृ॑तु॒था वि वो॑चः ॥३॥
tvaṁ ha nu tyad adamāyo dasyūm̐r ekaḥ kṛṣṭīr avanor āryāya | asti svin nu vīryaṁ tat ta indra na svid asti tad ṛtuthā vi vocaḥ ||
त्वम्। ह॒। नु। त्यत्। अ॒द॒म॒यः॒। दस्यू॑न्। एकः॑। कृ॒ष्टीः। अ॒व॒नोः॒। आर्या॑य। अस्ति॑। स्वि॒त्। नु। वी॒र्य॑म्। तत्। ते॒। इ॒न्द्र॒। न। स्वि॑त्। अ॒स्ति॒। तत्। ऋ॒तु॒ऽथा। वि। वो॒चः॒ ॥३॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर राजा को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुना राज्ञा किं कर्त्तव्यमित्याह ॥
हे इन्द्र राजन् ! यत्ते वीर्य्यमस्ति स्विन्नु यन्नास्ति स्विदृतुथा यद्वि वोचस्तत्त्वमवनोस्तन्ममास्तु दस्यूनेकः सन्नदमयः स त्वं ह कृष्टीरार्य्याय न्ववनोस्त्यद्वयप्येवं कुर्य्याम ॥३॥