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अनु॒ त्वाहि॑घ्ने॒ अध॑ देव दे॒वा मद॒न्विश्वे॑ क॒वित॑मं कवी॒नाम्। करो॒ यत्र॒ वरि॑वो बाधि॒ताय॑ दि॒वे जना॑य त॒न्वे॑ गृणा॒नः ॥१४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

anu tvāhighne adha deva devā madan viśve kavitamaṁ kavīnām | karo yatra varivo bādhitāya dive janāya tanve gṛṇānaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अनु॑। त्वा॒। अहि॑ऽघ्ने। अध॑। दे॒व॒। दे॒वाः। मद॑न्। विश्वे॑। क॒विऽत॑मम्। क॒वी॒नाम्। करः॑। यत्र॑। वरि॑वः। बा॒धि॒ताय॑। दि॒वे। जना॑य। त॒न्वे॑। गृ॒णा॒नः ॥१४॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:18» मन्त्र:14 | अष्टक:4» अध्याय:6» वर्ग:6» मन्त्र:4 | मण्डल:6» अनुवाक:2» मन्त्र:14


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वान् जन क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (देव) विद्वन् ! (यत्र) जहाँ (बाधिताय) विलोडित हुए (दिवे) कामना करते हुए (जनाय) जनके और (तन्वे) शरीर के लिये (वरिवः) सेवन की (गृणानः) स्तुति करता हुआ जन (करः) कार्य्यों को करनेवाला है वहाँ (अहिघ्ने) मेघ को नष्ट करनेवाले सूर्य के लिये जैसे वैसे जिस (कवीनाम्) विद्वानों के मध्य में (कवितमम्) अत्यन्त विद्वान् (त्वा) आपको (विश्वे) सब (देवाः) विद्वान् जन (अनु, मदन्) आनन्दित करते हैं, उन आप का आश्रयण करके (अध) इसके अनन्तर निरन्तर हम लोग सुखी होवें ॥१४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य उत्तम, यथार्थवक्ता, विद्वानों का उत्तम प्रकार सेवन कर विद्याओं को प्राप्त होकर अन्यों को जानते हैं, वे प्रसन्न होते हैं ॥१४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वांसः किं कुर्य्युरित्याह ॥

अन्वय:

हे देव ! यत्र बाधिताय दिवे जनाय तन्वो वरिवो गृणानः करोऽस्ति तत्राहिघ्ने सूर्य्यायेव यं कवीनां कवितमं त्वा विश्वे देवा अनु मदन् तं त्वामाश्रित्याध सततं वयं सुखिनः स्याम ॥१४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अनु) (त्वा) त्वाम् (अहिघ्ने) योऽहिं हन्ति तस्मै सूर्य्याय (अध) अथ (देव) विद्वन् (देवाः) विद्वांसः (मदन्) आनन्दयन्ति (विश्वे) सर्वे (कवितमम्) अतिशयेन विद्वांसम् (कवीनाम्) विदुषाम् (करः) यः करोति सः (यत्र) (वरिवः) परिचरणम् (बाधिताय) विलोडिताय (दिवे) कामयमानाय (जनाय) (तन्वे) शरीराय (गृणानः) स्तुवन् ॥१४॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्या उत्तमानाप्तान् विदुषः संसेव्य विद्याः प्राप्यान्यान् बोधयन्ति ते मोदिता अनुजायन्ते ॥१४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे उत्तम विद्वानाकडून उत्तम प्रकारे विद्या शिकतात व इतरांना शिकवितात ती प्रसन्न असतात. ॥ १४ ॥