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प्र तत्ते॑ अ॒द्या कर॑णं कृ॒तं भू॒त्कुत्सं॒ यदा॒युम॑तिथि॒ग्वम॑स्मै। पु॒रू स॒हस्रा॒ नि शि॑शा अ॒भि क्षामुत्तूर्व॑याणं धृष॒ता नि॑नेथ ॥१३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra tat te adyā karaṇaṁ kṛtam bhūt kutsaṁ yad āyum atithigvam asmai | purū sahasrā ni śiśā abhi kṣām ut tūrvayāṇaṁ dhṛṣatā ninetha ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र। तत्। ते॒। अ॒द्य। कर॑णम्। कृ॒तम्। भू॒त्। कुत्स॑म्। यत्। आ॒युम्। अ॒ति॒थि॒ऽग्वम्। अ॒स्मै॒। पु॒रु। स॒हस्रा॑। नि। शि॒शाः॒। अ॒भि। क्षाम्। उत्। तूर्व॑याणम्। धृ॒ष॒ता। नि॒ने॒थ॒ ॥१३॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:18» मन्त्र:13 | अष्टक:4» अध्याय:6» वर्ग:6» मन्त्र:3 | मण्डल:6» अनुवाक:2» मन्त्र:13


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर राजा क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजन् ! (यत्) जिस (कुत्सम्) वज्र के सदृश दृढ़ (अतिथिग्वम्) अतिथियों को प्राप्त होनेवाले (आयुम्) जीवन को (अस्मै) इसके लिये आप (उत्) (निनेथ) उन्नति प्राप्त करिये जिस (धृषता) दृढ़त्व से (तूर्वयाणम्) शीघ्रगामी वाहन जिसका उस (क्षाम्) पृथिवी को (पुरू) बहुत (सहस्रा) हजारों की (अभि) चारों ओर से (नि, शिशाः) शिक्षा दीजिये (तत्) वह (ते) आप का (अद्या) आज (करणम्) साधन (कृतम्) किया गया (प्र, भूत्) होवे ॥१३॥
भावार्थभाषाः - जहाँ राजा आदि जन अधिक अवस्थावाले अतिथि जनों के सेवक, पक्षपात का त्याग करके प्रजा के पालक हैं, वहाँ सम्पूर्ण कार्य्य सिद्ध होते हैं ॥१३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुना राजा किं कुर्य्यादित्याह ॥

अन्वय:

हे राजन् ! यत्कुत्समतिथिग्वमायुमस्मै त्वमुन्निनेथ येन धृषता तूर्वयाणं क्षां पुरू सहस्राऽभि नि शिशास्तत्तेऽद्या करणं कृतं प्र भूत् ॥१३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्र) (तत्) (ते) तव (अद्या) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (करणम्) साधनम् (कृतम्) (भूत्) भवेत् (कुत्सम्) वज्रमिव दृढम् (यत्) (आयुम्) जीवनम् (अतिथिग्वम्) योऽतिथीन् गच्छति तम् (अस्मै) (पुरू) बहूनि (सहस्रा) सहस्राणि (नि) (शिशाः) शिक्षय (अभि) (क्षाम्) पृथिवीम् (उत्) (तूर्वयाणम्) तूर्वं शीघ्रगामि यानं यस्यास्ताम् (धृषता) दृढत्वेन (निनेथ) नय ॥१३॥
भावार्थभाषाः - यत्र राजादयो जना दीर्घायुषोऽतिथिसेवकाः पक्षपातं विहाय प्रजापालकाः सन्ति तत्र सर्वाणि कार्य्याणि सिद्धानि जायन्ते ॥१३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जेथे राजा इत्यादी लोक दीर्घायुषी, अतिथींचे सेवक, भेदभाव न करता प्रजेचे पालन करतात तेथे संपूर्ण कार्य परिपूर्ण होते. ॥ १३ ॥