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त्वाम॑ग्ने स्वा॒ध्यो॒३॒॑ मर्ता॑सो दे॒ववी॑तये। य॒ज्ञेषु॑ दे॒वमी॑ळते ॥७॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvām agne svādhyo martāso devavītaye | yajñeṣu devam īḻate ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वाम्। अ॒ग्ने॒। सु॒ऽआ॒ध्यः॑। मर्ता॑सः। दे॒वऽवी॑तये। य॒ज्ञेषु॑। दे॒वम्। ई॒ळ॒ते॒ ॥७॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:16» मन्त्र:7 | अष्टक:4» अध्याय:5» वर्ग:22» मन्त्र:2 | मण्डल:6» अनुवाक:2» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) विद्या और विनय से प्रकाशात्मा विद्वन् ! जैसे (स्वाध्यः) उत्तम प्रकार चारों ओर से ध्यान करनेवाले (मर्त्तासः) मनुष्य (देववीतये) विद्या आदि श्रेष्ठ गुणों की प्राप्ति के लिये (यज्ञेषु) पढ़ाने पढ़ने और उपदेश नामक व्यवहारों में (त्वाम्) पूर्ण विद्यायुक्त यथार्थवक्ता आप (देवम्) विज्ञान के देनेवाले की (ईळते) स्तुति करते हैं, उस प्रकार से हम लोग प्रशंसा करें ॥७॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। विद्यार्थियों को चाहिये कि विद्या की प्राप्ति के लिये विद्वानों का सेवन करें और जैसे सृष्टि के पदार्थों में अग्नि प्रशंसित है, वैसे ही मनुष्यों में धार्मिक विद्वान् हैं, यह जानना चाहिये ॥७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे अग्ने विद्वन् ! यथा स्वाध्यो मर्त्तासो देववीतये यज्ञेषु त्वां देवमीळते तथा वयं प्रशंसेम ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वाम्) पूर्णविद्यमाप्तम् (अग्ने) विद्याविनयाभ्यां प्रकाशात्मन् (स्वाध्यः) ये सुष्ठु समन्ताद् ध्यायन्ति (मर्त्तासः) मनुष्याः (देववीतये) विद्यादिदिव्यगुणप्राप्तये (यज्ञेषु) अध्यापनाध्ययनोपदेशाख्येषु व्यवहारेषु (देवम्) विज्ञानप्रदम् (ईळते) स्तुवन्ति ॥७॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। विद्यार्थिभिर्विद्याप्राप्तये विद्वांसः सेवनीयाः। यथा सृष्टिपदार्थेष्वग्निः प्रशंसितोऽस्ति तथैव मनुष्येषु धार्मिका विद्वांसः सन्तीति वेद्यम् ॥७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. विद्यार्थ्यांनी विद्याप्राप्तीसाठी विद्वानाचा स्वीकार करावा. जसा सृष्टीतील पदार्थांमध्ये अग्नी स्तुती करण्यायोग्य असतो, तसेच माणसांमध्ये धार्मिक विद्वान असतात हे जाणले पाहिजे. ॥ ७ ॥